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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


विनय–बहन, जब सब कुछ जानती ही हो तो तुमसे क्या छिपाऊं। अब मैं सचेत नहीं हो सकता। इन चार-पांच महीनों में मैंने जो मानसिक ताप सहन किया है, उसे मेरा हृदय ही जानता है। मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है, मैं आंखें खोकर गढ़े में गिर रहा हूं, जान-बूझकर विष का प्याला पी रहा हूं। कोई बाधा, कोई कठिनाई, कोई शंका अब मुझे सर्वनाश से नहीं बचा सकती। हां, इसका मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि इस आग की एक चिनगारी या एक लपट भी सोफ़ी तक न पहुंचेगी। मेरा सारा शरीर भस्म हो जाए, हड्डियां तक राख हो जाएं; पर सोफ़ी को उस ज्वाला की झलक तक न दिखाई देगी। मैंने भी यही निश्चय किया है कि जितनी जल्दी हो सके, मैं यहां से चला जाऊं–अपनी रक्षा के लिए नहीं, सोफ़ी की रक्षा के लिए। आह ! इससे तो यह कहीं अच्छा था कि सोफ़ी ने मुझे उसी आग में जल जाने दिया होता, मेरा परदा ढंका रह जाता। अगर अम्मां को यह बात मालूम हो गई, तो उनकी क्या दशा होगी। इसकी कल्पना ही से मेरे रोएं खड़े हो जाते हैं। बस, अब मेरे लिए मुंह मे कालिख लगाकर कहीं डूब मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं है।

यह कहकर विनयसिंह बाहर चले गए। इंदु ‘बैठो-बैठो’ कहती रह गई। वह इस समय आवेश में उससे बहुत ज्यादा कह गए थे, जितना वह कहना चाहते थे। और देर तक बैठते, तो न जाने और क्या-क्या कह जाते। इंदु की दशा उस प्राणी की-सी थी, जिसके पैर बंधे हों और सामने उसका घर जल रहा हो। वह देख रही थी, यह आग सारे घर को जला देगी; विनय के ऊंचे-ऊंचे मंसूबे माता की बड़ी-बड़ी अभिलाषाएं, पिता के बड़े-बड़े अनुष्ठान, सब विध्वंस हो जाएंगे। वह इन्हीं शोकमय विचारों में पड़ी सारी रात करवटें बदलती रही। प्रातःकाल उठी, तो द्वार पर उसके लिए पालकी तैयार खड़ी थी। वह माता के गले से लिपटकर रोई, पिता के चरणों को आंसुओं से धोया और घर से चली। रास्ते में सोफ़ी का कमरा पड़ता था। इंदु ने उस कमरे की ओर ताका भी नहीं। सोफ़ी उठकर द्वार पर आई, और आंखों में आंसू भरे हुए उससे हाथ मिलाया। इंदु ने जल्दी से हाथ छु़ड़ा लिया और आगे बढ़ गई।

सोफ़िया इस समय उस अवस्था में थी, जब एक साधारण हंसी की बात, एक साधारण आंखों का इशारा, किसी का उसे देखकर मुस्करा देना, किसी महरी का उसकी आज्ञा का पालन करने में एक क्षण विलंब करना, ऐसी हजारों बातें, जो नित्य घरों में होती हैं और जिनकी कोई परवा भी नहीं करता, उसका दिल दुःखाने के लिए काफी हो सकती थीं। चोट खाए हुए अंग को मामूली-सी ठेस भी असह्य हो जाती है। फिर इंदु का बिना उससे कुछ कहे-सुने चला जाना क्यों न दुःखजनक होता ! इंदु तो चली गई; पर वह बहुत देर तक अपने कमरे के द्वार पर मूर्ति की भांति खड़ी सोचती रही–यह तिरस्कार क्यों? मैंने ऐसा कौन-सा अपराध किया है, जिसका मुझे यह दंड मिला है? अगर उसे यह मंजूर न था कि मुझे साथ ले जाती, तो साफ-साफ कह देने में क्या आपत्ति थी? मैंने उसके साथ चलने के लिए आग्रह तो किया न था ! क्या मैं इतना नहीं जानती कि विपत्ति में कोई किसी का साथी नहीं होता? वह रानी है, उसकी इतनी ही कृपा क्या कम थी कि मेरे साथ हंस-बोल लिया करती थी ! मैं उसकी सहेली बनने के योग्य कब थी; क्या मुझे इतनी समझ भी न थी ! लेकिन इस तरह आंखें फेर लेना कौन-सी भलमंसी है ! राजा साहब ने न माना होगा, यह केवल बहाना है। राजा साहब इतनी-सी बात को कभी अस्वीकार नहीं कर सकते। इंदु ने खुद ही सोचा होगा–वहां बड़े-बड़े आदमी मिलने आवेंगे, उनसे इसका परिचय क्योंकर कराऊंगी। कदाचित् यह शंका हुई हो कि कहीं इसके सामने मेरा रंग फीका न पड़ जाए। बस, यही बात है, अगर मैं मूर्खा, रूप-गुणविहीना होती, तो वह मुझे जरूर साथ ले जाती; मेरी हीनता से उसका रंग और चमक उठता। मेरा दुर्भाग्य !

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