सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
यह कहकर जाह्नवी चली गई। सोफ़ी का हृदय हल्का हो गया। उसे बड़ी चिंता हो रही थी कि इंदु के चले जाने पर यहां मैं कैसे रहूंगी, कौन मेरी बात पूछेगा, बिन-बुलाए मेहमान की भांति पड़ी रहूंगी। यह चिंता शांत हो गई।
उस दिन से उसका और भी आदर-सत्कार होने लगा। लौंडियां उसका मुंह जोहती रहतीं बार-बार आकर पूछ जाती–मिस साहब, कोई काम तो नहीं है? कोचवान दोनों जून पूछ जाता–हुक्म हो तो गाड़ी तैयार करूं। रानीजी भी दिन में एक बार जरूर आ बैठतीं। सोफ़ी को अब मालूम हुआ कि उनका हृदय स्त्री-जाति के प्रति सदिच्छाओं से कितना परिपूर्ण था। उन्हें भारत की देवियों को ईट और पत्थर के सामने सिर झुकाते देखकर हार्दिक वेदना होती थी। वह उनके जड़वाद को, उनके मिथ्यावाद को, उनके स्वार्थवाद को भारत की अधोगति का मुख्य कारण समझती थी। इन विषयों पर सोफ़ी से घंटों बातें किया करतीं।
इस कृपा और स्नेह ने धीरे-धीरे सोफ़ी के दिल से विरानेपन के भावों को मिटाना शुरू किया। उसके आचार-विचार में परिवर्तन होने लगा। लौंडियों से कुछ कहते हुए अब झेंप न होती, भवन के किसी भाग में जाते हुए अब संकोच न होता; किंतु चिंताए ज्यों-ज्यों घटती थीं, विलास-प्रियता बढ़ती थी। उसके अवकाश की मात्रा में वृद्धि होने लगी। विनोद से रुचि होने लगी। कभी-कभी प्राचीन कवियों के चित्रों को देखती, कभी बाग की सैर करने चली जाती, कभी प्यानो पर जा बैठती; यहां तक कि कभी-कभी जाह्नवी के साथ शतरंज भी खेलने लगी। वस्त्राभूषण से अब वह उदासीनता न रही। गाउन के बदले रेशमी साड़ियां पहनने लगी। रानीजी के आग्रह में कभी-कभी पान भी खा लेती। कंघी-चोटी से प्रेम हुआ। चिंता त्यागमूलक होती है। निश्चिंतता का आमोद-विनोद से मेल है।
एक दिन, तीसरे पहर, वह अपने कमरे में बैठी हुई कुछ पढ़ रही थी। गरमी इतनी सख्त थी कि बिजली के पंखे और खस की टट्टियों के होते हुए भी शरीर से पसीना निकल रहा था। बाहर लू से देह झुलसी जाती थी। सहसा प्रभु सेवक आकर बोले–सोफ़ी, जरा चलकर एक झगड़े का निर्णय कर दो। मैंने एक कविता लिखी है, विनयसिंह को उसके विषय में कई शंकाएं हैं। मैं कुछ कहता हूं, वह कुछ कहते हैं; फैसला तुम्हारे ऊपर छोड़ा गया है। जरा चलो।
सोफ़ी–मैं काव्य संबंधी विवाद का क्या निर्णय करूंगी, पिंगल का अक्षर तक नहीं जानती, अलंकारों का लेश-मात्र भी ज्ञान नहीं; मुझे व्यर्थ ले जाते हो।
प्रभु सेवक–उस झग़डे का निर्णय करने के लिए पिंगल जानने की जरूरत नहीं। मेरे और उनके आदर्श में विरोध है। चलो तो।
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