सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
सोफ़ी आंगन से निकली, तो ज्वाला-सी देह में लगी। जल्दी-जल्दी पग उठाते हुए विनय के कमरे में आई, जो राजभवन के दूसरे भाग में था। आज तक वह यहां कभी न आई थी। कमरे में कोई सामान न था। केवल एक कंबल बिछा हुआ था और जमीन पर ही दस-पांच पुस्तकें रखी हुई थीं। न पंखा, न खस की टठ्टी, न परदे, न तस्वीरें। पछुआ सीधे कमरे में आती थी। कमरे की दीवारें जलते तवे की भांति तप रही थीं। वहीं विनय कंबल पर सिर झुकाए बैठे हुए थे। सोफ़ी को देखते ही वह उठ खड़े हुए और उसके लिए कुर्सी लाने दौड़े।
सोफ़ी–कहां जा रहे हैं?
प्रभु सेवक–(मुस्कराकर) तुम्हारे लिए कुर्सी लाने।
सोफ़ी–वह कुर्सी लगाएंगे और मैं बैठूंगी ! कितनी भद्दी बात है !
प्रभु सेवक–मैं रोकता भी, तो वह न मानते।
सोफ़ी–इस कमरे में इनसे कैसे रहा जाता है?
प्रभु सेवक–पूरे योगी हैं। मैं तो प्रेम-वश चला आता हूं।
इतने में विनय ने एक गद्देदार कुर्सी लाकर सोफ़ी के लिए रख दी। सोफ़ी संकोच और लज्जा से गड़ी जा रही थी। विनय की ऐसी दशा हो रही थी, मानो पानी में भीग रहे हैं। सोफ़ी मन में कहती थी–कैसा आदर्श जीवन है ! विनय मन में कहते थे–कितना अनुपम सौंदर्य है ! दोनों अपनी-अपनी जगह खड़े रहे ! आखिर विनय को एक उक्ति सूझी। प्रभु सेवक की ओर देखकर बोले–हम और तुम वादी हैं, खड़े रह सकते हैं, पर न्यायाधीश का तो उच्च स्थान पर बैठना ही उचित है।
सोफ़ी ने प्रभु सेवक की ओर ताकते हुए उत्तर दिया–खेल में बालक अपने को भूल नहीं जाता।
अंत में तीनों प्राणी कंबल पर बैठे। प्रभु सेवक ने अपनी कविता पढ़ सुनाई। कविता माधुर्य में डूबी हुई, उच्च और पवित्र भावों से परिपूर्ण थी। कवि ने प्रसादगुण कूट-कूटकर भर दिया था। विषय था–एक माता का अपनी पुत्री को आशीर्वाद। पुत्री ससुराल जा रही है, माता उसे गले लगाकर आशीर्वाद देती है–पुत्री, तू पति-परायण हो, तेरी गोद फले, उसमें फूल के-से कोमल बच्चे खेलें, उनकी मधुर हास्य-ध्वनि से तेरा घर और आंगन गूंजे। तुझ पर लक्ष्मी की कृपा हो। तू पत्थर भी छूए, तो कंचन हो जाए। तेरा पति तुझ पर उसी भांति अपने प्रेम की छाया रखे, जैसे छप्पर दीवार को अपनी छाया में रखता है।
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