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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


प्रभु सेवक–आपको जो कुछ कहना था, कह चुके?

विनयसिंह–अभी बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर इस समय इतना ही काफी है।

प्रभु सेवक–मैं आपसे पहले ही कह चुका हूं कि बलिदान और त्याग के आदर्श की मैं निंदा नहीं करता। वह मनुष्य के लिए सबसे ऊंचा स्थान है; और वह धन्य है, जो उसे प्राप्त कर ले। किंतु जिस प्रकार कुछ व्रतधारियों के निर्जल और निराहार रहने से अन्य और जल की उपयोगिता में बाधा नहीं पड़ती, उसी प्रकार दो-चार योगियों के त्याग से दांपत्य जीवन त्याज्य नहीं हो जाता। दांपत्य मनुष्य के सामाजिक जीवन का मूल है। उसका त्याग तक दीजिए। बस हमारे सामाजिक संगठन का शीराजा बिखर जाएगा, और हमारी दशा पशुओं के समान हो जाएगी। गार्हस्थ को ऋषियों ने सर्वोच्य धर्म कहा है; और अगर शांत हृदय से विचार कीजिए तो विदित हो जाएगा कि ऋषियों का यह कथन अत्युक्ति-मात्र नहीं है। दया, सहानुभूति, सहिष्णुता, उपकार, त्याग आदि देवोचित गुणों के विकास के जैसे सुयोग गार्हस्थ जीवन में प्राप्त होते हैं, और किसी अवस्था में नहीं मिल सकते। मुझे तो यहां तक कहने में संकोच नही है कि मनुष्य के लिए यही एक ऐसी व्यवस्था है, जो स्वाभाविक कही जा सकती है। जिन कृत्यों ने मानव-जाति का मुख उज्ज्वल कर दिया है, उनका श्रेय योगियों को नहीं, दांपत्य-सुख-भोगियों को है। हरिश्चंद्र योगी नहीं थे, रामचंद्र योगी नहीं थे, कृष्ण त्यागी नहीं थे, नेपोलियन त्यागी नहीं था, नेलसन योगी नहीं था। धर्म और विज्ञान के क्षेत्र में त्यागियों ने अवश्य कीर्ति-लाभ की है; लेकिन कर्मक्षेत्र में यश का सेहरा भोगियों के ही सिर बंधा है। इतिहास में ऐसा एक भी प्रमाण नहीं मिलता कि किसी जाति का उद्धार त्यागियों द्वारा हुआ हो। आज भी हिंदुस्तान में १० लाख से अधिक त्यागी बसते हैं; पर कौन कह सकता है कि उनसे समाज का कुछ उपकार हो रहा है। संभव है, अप्रत्यक्ष रूप से होता हो; पर प्रत्यक्ष रूप से नहीं होता। फिर यह आशा क्योंकर की जा सकती है कि दांपत्य जीवन की अवहेलना से जाति का विशेष उपकार होगा? हां, अगर अविचार को उपकार कहें, तो अवश्य उपकार होगा।

यह कथन समाप्त करके प्रभु सेवक ने सोफ़िया से कहा–तुमने दोनों वादियों के कथम सुन लिए, तुम इस समय न्याय के आसन पर हो, सत्यासत्य का निर्णय करो।

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