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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


सोफ़ी–इसका निर्णय तुम-आप ही कर सकते हो। तुम्हारी समझ में संगीत बहुत अच्छी चीज है?

प्रभु सेवक–अवश्य।

सोफ़ी–लेकिन, अगर किसी के घर में आग लगी हुई हो, तो उसके निवासियों को गाते-बजाते देखकर तुम क्या कहोगे?

प्रभु सेवक–मूर्ख कहूंगा, और क्या।

सोफ़ी–क्यों, गाना तो कोई बुरी चीज नहीं?

प्रभु सेवक–तो यह साफ-साफ क्यों नहीं कहतीं कि तुमने इन्हें डिग्री दे दी? मैं पहले ही समझ रहा था कि तुम इन्हीं की तरफ से झुकोगी।

सोफ़ी–अगर यह भय था, तो तुमने मुझे निर्णायक क्यों बनाया था? तुम्हारी कविता उच्च कोटि की है। मैं इसे सर्वांग-सुंदर कहने को तैयार हूं। लेकिन तुम्हारा कर्त्तव्य है कि अपनी इस अलौकिक शक्ति को स्वदेश-बंधुओं के हित में लगाओ। अवनति की दशा में श्रृंगार और प्रेम का राग अलापने की जरूरत नहीं होती, इसे तुम भी स्वीकार करोगे। सामान्य कवियों के लिए कोई बंधन नहीं है–उन पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है। लेकिन तुम्हें ईश्वर ने जितनी ही महत्त्वपूर्ण शक्ति प्रदान की है, उतना ही उत्तरदायित्व भी तुम्हारे ऊपर ज्यादा है।

जब सोफ़िया चली, गई तो विनय ने प्रभु सेवक से कहा–मैं इस निर्णय को पहले ही से जानता था। तुम लज्जित तो न हुए होगे?

प्रभु सेवक–उसने तुम्हारी मुरौवत की है।

विनयसिंह–भाई, तुम बड़े अन्यायी हो। इतने युक्तिपूर्ण निर्णय पर भी उनके सिर इलजाम लगा ही दिया। मैं तो उनकी विचारशीलता का पहले ही से कायल था, आज से भक्त हो गया। इस निर्णय ने मेरे भाग्य का निर्णय कर दिया। प्रभु मुझे स्वप्न में भी यह आशा नहीं थी कि मैं इतनी आसानी से लालसा दास हो जाऊंगा। मैं मार्ग से विचलित हो गया, मेरा संयम कपटी मित्र की भांति परीक्षा के पहले ही अवसर पर मेरा साथ छोड़ गया। मैं भली भांति जानता हूं कि मैं आकाश के तारे तोड़ने जा रहा हूं–वह फल खाने जा रहा हूं, जो मेरे लिए वर्जित है। खूब जानता हूँ, प्रभु, कि मैं अपने जीवन को नैराश्य की वेदी पर बलिदान कर रहा हूं। अपनी पूज्य माता के हृदय पर कुठारघात कर रहा हूं, अपनी मर्यादा की नौका को कलंक के सागर में डुबा रहा हूं, अपनी महत्त्वकांक्षाओं को विसर्जित कर रहा हूं; पर मेरा अंत:करण इसके लिए मेरा तिरस्कार नहीं करता। सोफ़िया मेरी किसी तरह नहीं हो सकती; पर मैं उसका हो गया, और आजीवन उसकी का रहूंगा।

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