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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


एक दिन, रात को, भोजन करने के बाद सोफ़िया रानी जाह्नवी के पास बैठी हुई कोई समाचार-पत्र पढ़कर सुना रही थी कि विनयसिंह आकर बैठ गए। सोफ़ी की विचित्र दशा हो गई, पढ़ते-पढ़ते भूल जाती कि कहां तक पढ़ चुकी हूं, और पढ़ी हुई पंक्तियों को फिर पढ़ने लगती, वह भी अटक-अटककर, शब्दों पर आंखें न जमतीं। वह भूल जाना चाहती थी कि कमरे में रानी के अतिरिक्त कोई और बैठा हुआ है, पर बिना विनय की ओर देखेते ही उसे दिव्य ज्ञान-सा हो जाता था कि अब वह मेरी ओर ताक रहे हैं, और तत्क्षण उसका मन अस्थिर हो जाता। जाह्नवी ने कई बार टोका–सोती तो नहीं हो? क्या बात है, रुक क्यों जाती हो? आज तुझे क्या हो गया है बेटी? सहसा उनकी दृष्टि विनयसिंह की ओर फिरी–उसी समय जब वह प्रेमातुर नेत्रों से उसकी ओर ताक रहे थे। जाह्नवी का विकसित, शांत मुख-मंडल तमतमा उठा, मानो बाग में आग लग गई। अग्निमय नेत्रों से विनय की ओर देखकर बोलीं–तुम कब जा रहो हो?

विनयसिंह–बहुत जल्द।

जाह्नवी–मैं बहुत जल्द का आशय यह समझती हूं कि तुम कल प्रात:काल ही प्रस्थान करोगे।

विनयसिंह–अभी साथ जानेवाले कई सेवक बाहर गए हुए हैं।

जाह्नवी–अभी जाकर सब आदमियों को सूचना दे दो। मैं चाहती हूं कि तुम स्टेशन पर सूर्य के दर्शन करो।

विनय–इंदु से मिलने जाना है।

जाह्नवी–कोई जरूरत नहीं। मिलने-भेंटने की प्रथा स्त्रियों के लिए है, पुरुषों के लिए नहीं जाओ।

विनय को फिर कुछ कहने की हिम्मत न हुई, आहिस्ता से उठे और चले गए।

सोफ़ी ने साहस करके कहा–आजकल तो राजपूताने में आग बरसती होगी !

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