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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


जाह्नवी ने निश्चयात्मक भाव से कहा–कर्त्तव्य कभी आग और पानी की परवा नहीं करता। जाओ, तुम भी सो रहो, सवेरे उठना है।

सोफ़ी–सारी रात बैठी रही। विनय से एक बार मिलने के लिए उसका हृदय तड़फड़ा रहा था–आह ! वह कल चले जाएंगे, और मैं उनसे विदा भी न हो सकूंगी। वह बार-बार खिड़की से झांकती कि कहीं विनय की आहट मिल जाए। छत पर चढ़कर देखा; अंधकार छाया हुआ था, तारागण उसकी आतुरता पर हंस रहे थे। उसके जी में कई बार प्रबल आवेग हुआ कि छत पर से नीचे बाग में कूंद पड़ूं, उनके कमरे में जाऊं और कहूं–मैं तुम्हारी हूं। आह ! अगर संप्रदाय ने हमारे और उनके बीच में बाधा न खड़ी कर दी होती, तो वह इतने चिंतित क्यों होते, मुझको इतना संकोच क्यों होता, रानी मेरी अवहेलना क्यों करतीं? अगर मैं राजपूतानी होती तो रानी सहर्ष मुझे स्वीकार करतीं, पर मैं ईसा की अनुचरी होने के कारण त्याज्य हूं। ईसा और कृष्ण में कितनी समानता है; पर उनके अनुचरों में कितनी विभिन्नता ! कौन कह सकता है कि सांप्रदायिक भेदों ने हमारी आत्माओं पर कितना अत्याचार किया है !

ज्यों-ज्यों रात बीतती थी, सोफ़ी का दिल नैराश्य से बैठा जाता था–हाय, मैं यों ही बैठी रहूंगी और सबेरा हो जाएगा, विनय, चले जाएंगे। कोई भी तो नहीं, जिसके हाथों एक पत्र लिखकर भेज दूं। मेरे ही कारण तो उन्हें यह दंड मिल रहा है। माता का हृदय भी निर्दय होता है। मैं समझती थी, मैं ही अभागिन हूं; पर अब मालूम हुआ, ऐसी माताएं और भी हैं !

तब वह छत पर से उतरी और अपने कमरे में जाकर लेट रही। नैराश्य ने निद्रा की शरण ली; पर चिंता की निद्रा क्षुधावस्था का विनोद है–शांति-विहीन और नीरस। जरा ही देर सोई थी कि चौंककर उठ बैठी। सूर्य का प्रकाश कमरे में फैल गया था, और विनयसिंह अपने बीसों साथियों के साथ स्टेशन जाने को तैयार खड़े थे। बाग में हजारों आदमियों की भीड़ लगी लगी हुई थी।

वह तुरंत बाग में आ पहुंची और भीड़ को हटाती हुई यात्रियों के सम्मुख आकर खड़ी हो गई। राष्ट्रीय गान हो रहा था, यात्री नंगे सिर, नंगे पैर, एक-एक कुरता पहने, हाथ में लकड़ी लिए, गरदनों में एक-एक थैली लटकाए चलने को तैयार थे। सब-के-सब प्रसन्न-वदन, उल्लास से भरे हुए, जातीयता के गर्व से उन्मत्त थे, जिनको देखकर दर्शकों के मन गौरवान्वित हो रहे थे। एक क्षण में रानी जाह्नवी आईं और यात्रियों के मस्तक पर केशर के तिलक लगाए। तब कुंवर भरतसिंह ने आकर उनके गालों में हार पहनाए। इसके बाद डॉक्टर गांगुली ने चुने हुए शब्दों में उन्हें उपदेश दिया। उपदेश सुनकर यात्री लोग प्रस्थिर हुए। जयजयकार की ध्वनि सहस्र-सहस्र कंठों से निकलकर वायुमंडल को प्रतिध्वनित करने लगी। स्त्रियों और पुरुषों का एक समूह उनके पीछे-पीछे चला। सोफ़िया चित्रवत् खड़ी यह दृश्य देखती रही थी। उसके हृदय में बार-बार उत्कंठा होती थी, मैं भी इन्हीं यात्रियों के साथ चली जाऊं और दु:खित बंधुओं की सेवा करूं। उसकी आंखें विनयसिंह की ओर लगी हुई थीं। एकाएक विनयसिंह की आंखें उसकी ओर फिरीं; उनमें कितना नैराश्य तथा, कितनी मर्म-वेदना, कितनी विवशता, कितनी विनय ! वह सब यात्रियों के पीछे चल रहे थे, बहुत धीरे-धीरे, मानों पैरों में बेड़ी पड़ी हो। सोफ़िया उपचेतना की अवस्था में यात्रियों के पीछे-पीछे चली, और उसी दशा में सड़क पर आ पहुंची; फिर चौराहा मिला, इसके बाद किसी राजा का विशाल भवन मिला; पर अभी तक सोफ़ी को खबर न हुई कि मैं इनके साथ चली आ रही हूं। उसे यहाँ समय विनयसिंह के सिवा और कोई नजर ही न आता था। कोई प्रबल आकर्षण उसे खींच ले जाता था। यहां तक कि वह स्टेशन के समीप के चौराहे पर पहुंच गई। अचानक उसके कानों में प्रभु सेवक की आवाज आई, जो बड़े वेग से फिटन दौड़ाए चले आते थे।

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