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रूठी रानी (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :278
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8610
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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रूठी रानी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचंद ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है

रूठी रानी का सती होना

रानियां सती होने की तैयारियां करने लगीं। झाला रानी को उसके बेटे चन्द्रसेन ने सती होने से रोक लिया और कहा कि दो-चार दिन में सब सरदार आ जाएंगे, उनसे मेरी मदद का वादा कराके तब सती होना। झाला रानी ने चन्द्रसेन को, बावजूद उदयसिंह से छोटा होने के राव जी से कह-सुनकर उत्तराधिकारी बनवा दिया था। रानी हीरादेई ने भी समझाया कि चन्द्रसेन को इस तरह छोड़कर सती होने में बहुत नुकसान होगा। आखिर रानी सरूपदेई ठहर गईं, उस वक़्त सती न हुईं। दूसरी रानियां, खवासें, रखेलियां जो गिनती में इक्कीस थीं, राव जी की लाश के साथ जल मरीं।

राव जी के मरने की खबर बहुत जल्द सारे शहर में फैल गई। उनके बड़े-बड़े सरदार अपने सर मुंडवाकर जोधपुर में आने लगे। रानी सरूपदेई ने मृत्यु के पांचवें दिन सब सरदारों को इकट्ठा किया और उनसे कहा कि राव जी ने मेरे बेटे चन्द्रसेन को अपने हाथ से उत्तराधिकारी बनाया था। अब मैं आपके हाथों में यह फैसला छोड़कर सती होती हूं। सरदारों ने एक स्वर से कहा कि चन्द्रसेन हमारे राव हैं और हम उनके चाकर।

इस झमेले में और कई दिन की देर हो गई। रानी रोज सती होने की तैयारी करती मगर एक न एक ऐसा कारण पैदा हो जाता जिससे रुकना पड़ता। आखिर उसे गुस्सा आ गया, बेटे से झल्लाकर बोली– ‘‘तूने अपने राज के लिए मुझे राव जी के साथ जाने से रोक लिया और अभी तक तू अपने स्वार्थ की धुन में मेरे पीछे पड़ा हुआ है। मगर जिस राज के लिए तूने मेरा धर्म तोड़ा उस राज से तू या तेरी औलाद कोई फायदा न उठा सकेगी। यह शाप देकर रानी सरूपदेह ने चिता बनवाई और राव जी की पगड़ी के साथ सती हो गई।’’

दूसरी पगड़ी१ मृत्यु के तीसरे ही दिन कलेवा में पहुंची जहां कछवाही रानी और उमादेई कुमार राम के साथ रहती थीं। उस पगड़ी को देखते ही रूठीरानी ने उसी वक्त टेक छोड़ दी। उसका सारा घमण्ड दूर हो गया। रोकर कहने लगी– ‘‘अब किससे रूठूंगी, जिससे रूठती थी वह तो अब न रहा तो जीकर क्या करूंगी। उसने मेरा मान रख लिया। उसने मेरा घमण्ड निबाह दिया। अब मैं किसके लिए जिऊं। मेरी चिता भी बनवाओ। मैं भी राव जी का साथ न छोड़ूंगी।’’ (१. जब कोई राजा मर जाता था तो नाजिर उसकी पगड़ी लेकर रनिवास में जाता था। सती होनेवाली उस पगड़ी को ले लेती थी। दूसरी रानियां भी उसी के साथ सती हो जाती थीं। जो रानी कहीं दूर होती थी, उसके पास एक पगड़ी रवाना कर दी जाती थी।)

इधर लाछलदेई भी सती होने की तैयारी करने लगी। मगर उसका बेटा राम अपने बाप के उत्तराधिकारी बनने की धुन में मां के सती होने तक न ठहरा। उदयपुर चल दिया। उसकी यह जल्दबाजी और बेअदबी मां को बहुत बुरी लगी। अफसोस के साथ हाथ मलकर बोली– ‘‘राम, तेरे लिए हमें जोधपुर छोड़कर यहां दिन काटने पड़े और तू हमें इस तरह छोड़कर भागा जाता है। जा, अगर तेरी जुबान में कुछ असर है तो मुझे कभी मारवाड़ में रहना नसीब न होगा। तू या तेरी औलाद भी मारवाड़ का राज न करेगी, हमेशा दूसरे मुल्क की खाक छानती फिरेगी।’’

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