सदाबहार >> रूठी रानी (उपन्यास) रूठी रानी (उपन्यास)प्रेमचन्द
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रूठी रानी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचंद ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है
जनानी ड्योढ़ी में पहुंचते ही उम्मादे की मां ने राव जी की आरती उतारी, उनके माथे पर दही का टीका लगाया और जी में कहा कि ऐसे ही मेरा कलेजा ठंडा रहे। इसके बाद नाक खींचकर (जैसे वर की रवाना होने से पहले उसे दूध पिलाती है, वैसे ही सास उसके माथे पर दही लगाती है, यानि उसे अपनी लड़की का पति मान लेती है। कहावत है, दही की बात सही) अपना दुपट्टा उनके गले में डालकर उन्हें चंवरी में ले आयीं।
ब्राह्मण बड़े मधुर स्वर में वेद-मंत्र पढ़ने लगे। आग में आहुति पड़ी। हवन होने लगा। राव जी का हाथ उमादे के हाथ से मिलाया गया। उमादे आगे हुई और राव जी पीछे-पीछे चले। तीन बार हवन-कुण्ड की परिक्रमा की। नव औरतें यह गीत गाने लगीं—
दूजे फेरे बाई मामारी भतीजी
तीजे फेरे बाई बुआरी भतीजी
गीत का मतलब यह है कि बाप लकड़ी उस वक्त दे चुकता है जब दामाद से गले मिलता है, मां उस वक्त जब वह दामाद के माथे पर दही का टीका लगाती है। उसके बाद वेद और शास्त्र के अनुसार लड़की का विवाह होता है। उस वक्त उस पर चाचा, मामा, और बुआ का थोड़ा-बहुत हक रह जाता है। अगर चाचा को कुछ कहना हो या आपत्ति करनी हो तो पहले फेरे तक कर सकता है, मामा दूसरे फेरे तक और बुआ तीसरे फेरे तक। चौथे फेरे में लड़की पराई हो जाती है, फिर किसी का उस पर कोई हक बाकी नहीं रह जाता। इसीलिए चौथे फेरे के पहले ही दूल्हा-दुल्हन के आगे आ जाता है। कि जैसे उस वक्त से वह उसका पति और स्वामी माना जाता है। इस गीत में यह भी प्रकट होता है कि बुआ का हक लड़की पर बहुत माना गया है।
चौथे फेरे में राव जी आगे हो गए और उमादे उनके पीछे चलने लगी। तब औरतों ने यह पिछला गाकर अपना गीत पूरा किया-
गीत सुनते ही मां और बहनों के दिल भर आए। आंखों से आंसू टपकने लगे कि अब प्यारी उमादे पराई हो गई। इस तरह यह शादी बैशाख सुदी तीन संवत् १५९३ की रात को अच्छी तरह सम्पन्न हुई।
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