नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
फत्तू– (मन में) सबलसिंह के नेक और दयावान होने में सन्देह नहीं। कभी हमारे ऊपर सख्ती नहीं की। हमेशा रिआयत ही करते रहे, पर आंख का लगना बुरा होता है। पुलीसवाले न जाने उन्हें किस-किस तरह सतायेंगे। कहीं जेल न भिजवा दें। राजेश्वरी को वह जबरदस्ती थोड़े ही ले गये। वह तो अपने मन से गयी। मैंने चेतनदास बाबा को नाहक इस बुरे काम में मदद दी। किसी तरह सबलसिंह को बचाना चाहिए। (प्रकट) सब अल्लाह का करम है।
इन्स्पेक्टर– तुम्हारे जमींदार साहब तो खूब रंग लाये। कहां तो वह पारसाई और कहां यह हरकत।
फत्तू– हुजूर, हमको तो कुछ मालूम नहीं।
इन्स्पेक्टर– तुम्हारे बचाने से अब वह नहीं बच सकते। अब तो आ गये शेर के पंजे में। अपना बयान दीजिए। यहां गांव में पंचायत किसने कायम की?
फत्तू– हुजूर, गांव के लोगों ने मिलकर कायम की, जिसमें छोटी-छोटी बातों के पीछे अदालत की ठोकरें न खानी पड़ें।
इन्स्पेक्टर– सबलसिंह ने यह नहीं कहा कि अदालतों में जाना गुनाह है?
फत्तू– हुजूर, उन्होंने ऐसी बात तो नहीं कही, हां पंचायत के फायदे बताते थे।
इन्स्पेक्टर– उन्होंने तुम लोगों को बेगाद बन्द करने की ताकीद नहीं की? सच बोलना, खुदा तुम्हारे सामने है।
फत्तू– (बगलें झांकते हुए) हुजूर, उन्होंने यह तो नहीं कहा। हां, यह जरूर कहा कि जो चीज दो उसका मुनासिब दाम लो।
इन्स्पेक्टर– वह एक ही बात हुई। अच्छा, उस गांव में शराब की दुकान थी। वह किसने बन्द करायी?
फत्तू– हजूर, ठीकेदार ने आप ही बन्द कर दी। उसकी बिक्री न होती थी।
इन्स्पेक्टर– सबलसिंह ने सब से यह नहीं कहा कि जो उस दूकान पर जाये उसे पंचायत में सजा मिलनी चाहिए?
फत्तू– (मन में) इसको जरा-जरा सी बातों की खबर है (प्रकट) हजूर, मुझे याद नहीं।
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