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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


इन्स्पेक्टर– शेख जी, तुम कन्नी काट रहे हो, इसका नतीजा अच्छा नहीं है। दारोगा जी ने तुम्हारा जो बयान लिखा है उस पर चुपके से दस्तखत कर दो, वरना, जमींदार तो न बचेंगे, तुम अलबत्ता गेहूं के साथ घुन की तरह पिस जाओगे।

फत्तू– हुजूर का अखतियार है जो चाहे करें, पर मैं तो वही कहूंगा जो जानता हूं।

इन्स्पेक्टर– तुम्हारा क्या नाम है?

मंगरू– (सामने आ कर) मंगरू।

इन्स्पेक्टर– जो पूछा जाये उसका साफ-साफ जवाब देना। इधर-उधर किया तो तुम जानोगे। पुलिस का मारा पानी नहीं मांगता। यहां गांव में पंचायत किसने कायम की?

मंगरू– (मन में) मैं तो जो यह चाहेंगे वही कहूं। पीछे देखी जायेगी। गालियों देने लगें या पिटवाने ही लगे तो इनका क्या बना लूंगा? सबलसिंह तो मुझे बचा न देंगे। (प्रकट) ठाकुर सबलसिंह ने।

इन्स्पेक्टर– उन्होंने तुम लोगों से कहा था न कि सरकारी अदालत में जाना पाप है। जो सरकारी अदालत में जाये उसका हुक्का-पानी बन्द कर दो।

मंगरू– (मन में) यह तो नहीं कहा था, खाली अदालतों के खर्च से बचने के लिए पंचायत खोलने की ताकीद की थी। पर ऐसा कह दूं तो अभी यह जामे से बाहर हो जायेगा। (प्रकट) हां हुजूर, कहा था। बात सच्ची कहूंगा। जमींदार आकवत में थोड़े ही साथ देंगे।

इन्स्पेक्टर– सबलसिंह ने यह नहीं कहा था कि किसी हाकिम को बेगार मत दो?

मंगरू– (मन में) उन्होंने तो इतना ही कहा था कि मुनासिब दाम लेकर दो। (प्रकट) हां हुजूर, कहा था। बरमला कहा था। सच्ची बात कहने में क्या डर?

इन्स्पेक्टर– अच्छा, अपने बयान पर अंगूठें का निशान दो। तुम्हारा नाम क्या है जी? इधर जाओ।

हरदास– (सामने आकर) हरदास।

इन्स्पेक्टर– सच्चा बयान देना जैसा मंगरू ने दिया है, वर्ना तुम जानोगे।

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