नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
कंचन– अच्छी बात है, मुनीम जी लिखा-पढ़ी करके रुपये दे दीजिए पूजा करने जाता हूं। (जाता है।)
मुनीम– तो तुम्हें २०० रु. चाहिए न। पहिले ५ रु. सैकड़े नज़राना लाया था। अब ५ रु. सैकड़े हो गया है।
हलधर– जैसी मरजी।
मुनीम– पहले २ रु. सैकड़े लिखाई पड़ती थी, अब ४ रु. सैकड़े गयी है।
हलधर– जैसा सरकार का हुक्म।
मुनीम– स्टाम्प के ५ रु. लगेंगे।
हलधर– सही है।
मुनीम– चपरासियों का हक २ रु. होगा।
हलधर– जो हुक्म।
मुनीम– मेरी दस्तूरी ५ रु. होती है, लेकिन तुम गरीब आदमी तुमसे ४ रु. ले लूंगा! जानते ही मुझे यहां से कोई तलब तो मिलती न बस इसी दस्तूरी का भरोसा है।
हलधर– बड़ी दया है।
मुनीम– १ रु. ठाकुर जी को चढ़ाना होगा।
हलधर– चढ़ा दीजिए। ठाकुर तो सभी के हैं।
मुनीम– और १ रु. ठकुराइन के पान का खर्च है।
हलधर– ले लीजिए। सुना है गरीबों पर बड़ी दया करती हैं।
मुनीम– कुछ पढ़े हो?
हलधर– नहीं महाराज, करिया अच्छर भैंस बराबर है।
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