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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


मुनीम– तो इस इस्टाम पर बायें अंगूठे का निशान करो।

(सादे स्टाम्प पर निशान बनवाता है।)

मुनीम– (सन्दूक से रुपये निकालकर) गिन लो।

हलधर– ठीक ही होगा।

मुनीम– चौखट पर जाकर तीन बार सलाम करो और घर की राह लो।

हलधर– रुपये अंगोछे में बांधता हुआ जाता है। (कंचनसिंह का प्रवेश)

मुनीम– जरा भी कान पूंछ नहीं हिलायी।

कंचन– इन मूर्खों पर तो ताव सवार होता है तो इन्हें कुछ नहीं सूझता, आंखों पर परदा पड़ जाता है। इन पर दया आती है, पर करूं क्या? धन के बिना धर्म भी तो नहीं होता।

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