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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


सबल– (मन में) बेगार बंद करके मैंने गांव वालों को अपना भक्त बना लिया। बेगार खुली रहती तो कभी-न-कभी राजेश्वरी को भी बेगार करनी ही पड़ती, मेरे आदमी जाकर उसे दिक करते। अब यह नौबत कभी न आयेगी। शोक यही है कि यह काम मैंने नेक इरादों से नहीं किया, इसमें मेरा स्वार्थ छिपा हुआ है। लेकिन अभी तक मैं निश्चय नहीं कर सका कि इसका अन्त क्या होगा? राजेश्वरी के उद्धार करने का विचार तो केवल भ्रांत है। मैं उसके अनुपम रूप-छटा, उसके सरल व्यवहार और उसके निर्दोष अंग-विन्यास पर आसक्त हूं। इसमें रत्ती-भर भी संन्देह नहीं है। मैं कामवासना की चपेट में आ गया हूं और किसी तरह मुक्त नही हो सकता। खूब जानता हूं कि यह महाघोर पाप है! आश्चर्य होता है कि इतना संयमशील होकर भी मैं इसके दांव में कैसे आ पड़ा। ज्ञानी को अगर जरा भी संदेह हो जाये तो वह तो तुरन्त विष खा ले। लेकिन अब परिस्थिति पर हाथ मलना व्यर्थ है। यह विचार करना चाहिए कि इसका अन्त क्या होगा। मान लिया कि मेरी चालें सीधी पड़ती गयीं और वह मेरा कलमा पढ़ने लगी तो? कलुषित प्रेम! पापाभिनय! भगवन्! उस घोर नरकीय अग्निकुंड में मुझे मत डालना। मैं अपने सुख को और उस सरलहृदय बालिका की आत्मा को इस कालिमा से वेष्ठित नहीं करना चाहता। मैं उससे केवल पवित्र प्रेम करना चाहता हूं, उसकी मीठी-मीठी बातें सुनना चाहता हूं, उसकी मधुर मुस्कान की छटा देखना चाहता हूं, और कलुषित प्रेम क्या है...जो हो अब तो नाव नदी में डाल दी है, कहीं-न-कहीं पार लगेगी ही। कहां ठिकाने लगेगी? सर्वनाश के घाट पर? हां, मेरा सर्वनाश इसी बहाने होगा। यह पाप-पिशाच मेरे कुल को भक्षण कर जायेगा। ओह! यह निर्मूल शंकाएं हैं। संसार में एक-से-एक कुकर्मी व्याभिचारी पड़े हुए हैं, उनका सर्वनाश नहीं होता। कितनों ही को मैं जानता हूं तो विषय-भोग में लिप्त हो रहे हैं। ज्याद-से-ज्यादा उन्हें यह दंड मिलता है कि जनता कहती है, बिगड़ गया, कुल में दाग लगा दिया। लेकिन उनकी मान प्रतिष्ठा में जरा भी अन्तर नहीं पड़ता। यह पाप मुझे करना पड़ेगा। कदाचित मेरे भाग्य में यह बदा हुआ है। हरि इच्छा। हाँ, इसका प्रायश्चित करने में कोई कसर न रखूँगा। दान, व्रत, धर्म, सेवा इनके परदे को मेरा अभिनय होगा। दान व्रत, परोपकार, सेवा से सब मिलकर कपट-प्रेम की कालिमा को नहीं धो सकते। अरे, लोग अभी से तमाशा देखने आने लगे। खैर आने दूँ। भोजन में देर हो जायेगी। कोई चिन्ता नहीं। १२ बजे सब फिल्म खत्म हो जायेगी। चलूँ सबको बैठाऊँ (प्रकट) तुम लोग यहाँ आकर फर्श पर बैठे स्त्रियां परदे में चली जाये (मन में) है, वह भी है! कैसा सुन्दर अंग-विन्यास है। आज गुलाबी साड़ी पहने हुए है। अच्छा अबकी तो कई आभूषण भी ही है। गहनों से उसकी शरीर की शोभा ऐसी बढ़ गई है मानो वृक्ष में फूल लगे हों।

(दर्शक यथास्थान बैठ जाते हैं सबलसिंह चित्रों को दिखाना शुरू करते है।)

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