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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


(पहला चित्र– कई किसानों का रेलगाड़ी में सवार होने के लिए धक्कम-धक्का करना, बैठने का स्थान न मिलना, गाड़ी में खड़े रहना, एक कुली को जगह के लिए घूस देना, उसका इनको एक मालगाड़ी में बैठा देना। एक स्त्री का छूट जाना और रोना। गार्ड का गाड़ी को न रोकना।)

हलधर– बेचारी की कैसी दुर्गति हो रही है लो, लात-घूंसे चलने लगे। सब मार खा रहे है।

फत्तू– यहाँ भी घूस दिये बिना नहीं चलता। किराया दिया, घूस ऊपर से लात-घूसे खाये उसकी कोई गिनती नहीं। बड़ा अंधेर है। रुपये बड़े जतन से रखे हुए हैं। कैसा जल्दी निकाल रहा है कि कहीं गाड़ी न खुल जाये।

राजेश्वरी– (सलोनी से) हाय-हाय, बेचारी छूट गयी, गोद में लड़का भी है। गाड़ी नहीं रूकी सब बड़े निर्दयी हैं। हाय, भगवान उसका क्या हाल होगा?

सलोनी– एक बेर इसी तरह मैं भी छूट गयी थी। हरदुआर जाती थी।

राजेश्वरी– ऐसी गाड़ी पर कभी न सवार हो, पुण्य तो आगे-पीछे मिलेगा, यह विपत्ति अभी से सिर पर आ पड़ी।

(दूसरा चित्र– गाँव का पटवारी खाट पर बस्ता खोले बैठा है। कई किसान आस-पास खड़ें। पटवारी सभी से सालाना नजर वसूल कर रहा है)

हलधर– लाला का पेट तो फूल के कुप्पा हो गया है। चुटिया इतनी बड़ी जैसे बैल की पगहिया।

फत्तू– इतने आदमी खड़े गिड़गिड़ा रहे हैं, पर सिर नहीं उठाते, मानो कहीं के राजा है! अच्छा, पेट पर हाथ धरकर लोट गया। पेट अफर रहा है, बैठा नहीं जाता। चुटकी बाजार दिखाता है कि भेंट लाओ देखो, एक किसान कमर से रूपया निकालता है। मालूम होता है, बीमार रहा है, बदन पर मिरजई भी नहीं है। चाहे तो छाती के हाड़ गिन लो। वाह मुंशी जी! रुपया फेंक दिया, मुंह फेर लिया, अब बात न करेंगे।

जैसे बंदरिया रुठ जाती है और बंदर की ओर पीठ फेरकर बैठ जाती है। बेचारा किसान कैसे हाथ जोड़कर मना रहा है, पेट दिखाकर कहता है, भोजन का ठिकाना नहीं, लेकिन लाला साहब कब सुनते हैं।

हलधर– बड़ी गलाकाटू जात है।

फत्तू– जानता है कि चाहे बना दूँ चाहे बिगाड़ दूँ। यह सब हमारी ही दशा तो दिखायी जा रही है।

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