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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


सबल– राजेश्वरी! प्रेम के मद से मतवाला आदमी उपदेश नहीं सुन सकता। क्या तुम समझती हो कि मैंने बिना सोचे-समझे इस पथ पर पग रखा है। मैं महीनों से इसी हैस-बैस में हूँ। मैंने नीति का, सदाचार का, धर्म का, लोकनिन्दा का आश्रय लेकर देख लिया, कहीं संतोष न हुआ तब मैंने यह पथ पकड़ा। जीवन का बनाना-बिगाड़ना तुम्हारे ही हाथ है। अगर तुमने मुझ पर तरस न खाया तो अन्त यही होगा कि मुझे आत्महत्या जैसा भीषण पाप करना पड़ेगा, क्योंकि मेरी दशा असह्य हो गयी है। मैं इसी गाँव में घर बना लूंगा, यहीं रहूंगा तुम्हारे लिए भी मकान, धन-सम्पत्ति, जगह-जमीन किसी पदार्थ की कमी न रहेगी। केवल तुम्हारी स्नेह-दृष्टि चाहता हूं।

राजेश्वरी– (मन में) इनकी बात सुनकर मेरा चित्त चंचल हुआ जाता है। आप-ही-आप मेरा हृदय इनकी ओर खिंचा जाता है। पर यह तो सर्वनाश का मार्ग है। इसमें मैं इन्हें कटु वचन सुना कर यहीं रोक देती हूं। (प्रकट) आप विद्वान हैं, सज्जन हैं, धर्मात्मा हैं परोपकारी हैं, और मेरे मन में आपका जितना मान है यह मैं कह नहीं सकती। मैं अब से थोड़ी देर पहले आपको देवता समझती थी। पर आपके मुंह से ऐसी बातें सुनकर दुःख होता है। आपसे मैंने अपना हाल साफ-साफ कह दिया। उस पर भी आप वहीं बातें करते जाते हैं। क्या आप समझते हैं कि मैं अहीर जात और किसान हूं तो मुझे अपने धरम-करम का कुछ विचार नहीं है और मैं धन और सम्पत्ति पर अपने धरम को बेच दूंगी। आपका यह भरम है। आपको मैं इतनी सिरिद्धा से न देखती होती तो इस समय आप यहां इस तरह बेधड़क मेरे धरम का सत्यानाश करने की बातचीत न करते। एक पुकार पर सारा गाँव यहाँ आ जाता और आपको मालूम हो जाता कि देहात के गंवार अपनी औरतों की लाज कैसे रखते हैं। मैं जिस दशा में भी हूं, संतुष्ट हूं, मुझे किसी वस्तु की तृषना नहीं है। आपको मुबारक रहे। आपकी कुशलता इसी में है कि अभी आप यहाँ से चले जाइए। अगर गांववालों के कानों में इन बातों की जरा भी भनक पड़ी तो वह मुझे तो किसी तरह जीता न छोड़ेंगे। पर आपके भी जान के दुश्मन हो जाएगें। आप की दशा उपकार सेवा एक भी आपको उनके कोप से न बचा सकेगा।

(चली जाती है)

सबल– (आप-ही-आप) इसकी सम्पत्ति मेरे चित्त को हटाने की जगह और भी बल के साथ अपनी ओर खींचती है। ग्रामीण स्त्रियाँ भी इतनी दृढ़ और आत्मभिमानी होती है, इसका मुझे ज्ञान न था। अबोध बालक को जिस काम के लिए मना करो वही अदबदा कर सकता है। मेरे चित्त की दशा उसी बालक के समान है। वह अवहेलना से हतोत्साह नहीं, वरन और भी उत्तेजित होता है।

(प्रस्थान)

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