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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

छठा दृश्य

(स्थान– मधुबन गांव, समय– फागुन का अन्त, तीसरा पहर, गाँव के लोग बैठे बातें कर रहे हैं।)

एक किसान– वेगार तो सब बन्द हो गयी थी। अब यह दलहाई की बेगार क्यों मांगी जाती है।

फत्तू– जमींदार की मरजी। उसी ने अपने हुकुम से बेगार बन्द की थी। वही अपने हुकुम से जारी करता है।

हलधर– यह किस बात पर चिढ़ गये? अभी तो चार-ही-पाँच दिन होते हैं, तमाशा दिखाकर गये हैं। हम लोगों ने उनके सेवा-सत्कार में तो कोई बात उठा नहीं रखी।

फत्तू– भाई, राजठाकुर हैं, उनका मिजाज बदलता रहता है। आज किसी पर खुश हो गये तो उसे निहाल कर दिया, कल नाखुश हो गये तो हाथी के पैरों-तले कुचलवा दिया। मन की बात है।

हलधर– अकारन ही थोड़े किसी का मिजाज बदलता है। वह तो कहते थे, अब तुम लोग हाकिम-हुक्काम को भी बेगार मत देना। जो कुछ होगा मैं देख लूंगा। कहाँ आज यह हुकूम निकाल दिया। जरूर कोई बात मरजी के खिलाफ हुई है।

फत्तू– हुई होगी। कौन जाने घर ही में किसी ने कहा हो, आसामी अब सेर हो गये, तुम्हें बात भी न पूछेंगे। इन्होंने कहा हो कि सरे कैसे हो जायेंगे, देखो अभी बेगार लेकर दिखा देते हैं। यह कौन जाने कोई काम-काज आ पड़ा हो। अरहर भरी रखी हो, दलवा बेच देना चाहते हों।

कई आदमी– हां ऐसी ही कोई बात होगी। जो हुकुम देंगे वह बजाना ही पड़ेगा नहीं तो रहेंगे कहाँ।

एक किसान– और न दें तो क्या करें?

फत्तू– करने की एक ही कही, नाक में दम दें, रहना मुसकिल हो जाये। अरे और कुछ न करें लगान की रसीद ही न दें तो उनका क्या बना लोगें? कहां फरियाद ले जाओगे और कौन सुनेगा? कचहरी कहां तक दौड़ोगे? फिर वहां भी उनके सामने तुम्हारी कौन सुनेगा!

कई आदमी– आजकल मरने की छुट्टी ही नहीं है, कचहरी कौन दौड़ेगा? खेती तैयार खड़ी है, इधर ऊख बोना है फिर अनाज मांडना पड़ेगा। कचहरी के धक्के खाने से तो अच्छा है कि जमींदार जो कहे वही बजायें।

फत्तू– घर पीछे एक औरत जानी चाहिए। बुढ़ियों को छाटकर भेजा जाये।

हलधर– सबके घर बुढ़िया कहाँ?

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