नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सातवां दृश्य
(समय– संध्या, स्थान मधुबन। ओले पड़ गये हैं, गाँव के स्त्री-पुरुष खेतों में जमा हैं।)
फत्तू– अल्लाह ने परसी थाली छीन ली।
हलधर– बना-बनाया खेल बिगड़ गया।
फत्तू– छावत लागत छह बरस और छीन में होत उजाड़। कई साल के बाद तो अकेली खेती रंग पर आयी थी। कल इन खेतों को देख कर कैसी गज-भर की छाती हो जाती थी। ऐसा जान पड़ता था। सोना बिछा दिया है। बित्ते-बित्ते भर की बालें लहराती थीं, पर अल्लाह ने मारा सब सत्यानाश कर दिया। बाग में निकल जाते थे तो बौर की महक से चित्त खिल उठता था। पर आज बौर की कौन कहे पत्ते तक झड़ गये।
एक वृद्ध किसान– मेरी याद में इतने बड़े-बड़े ओले कभी न पड़े थे।
हलधर– मैंने इतने बड़े ओले देखे ही न थे। जैसे चट्टान काट-काटकर लुढ़का दिया हो।
फत्तू– तुम अभी हो कै दिन के? मैंने भी इतने बड़े ओले नहीं देखे।
एक वृद्ध किसान– एक बेर मेरी जवानी में इतने बड़े ओले गिरे थे कि सैकड़ों ढ़ोर मर गये। जिधर देखो मरी हुई चिड़ियाँ गिरी मिलती थीं। कितने ही पेड़ गिर पड़े पक्की छतें तक फट गयी थी। बखारों में अनाज सड़ गये थे।, रसोई में बरतन चकनाचूर हो गये। मुदा अनाज की मड़ाई हो चुकी थी। इतना नुकसान नहीं हुआ था।
सलोनी– मुझे तो मालूम होता है कि जमींदार की नीयत बिगड़ गई है। तभी ऐसी तबाही हुई है।
राजोश्वरी– काकी, ‘भगवान न जाने क्या करने वाले हैं। बार-बार मने करती थी। कि अभी महाजन के रुपये न लो। लेकिन मेरी कौन सुनता है। दौंड़े-दौड़े गये २०० रु. उठा लाये, जैसे धरोहर हो। देखें अब कहां से देते हैं। लगान ऊपर से देना है। पेट तो मजूरी करके भर जायेगा लेकिन महाजन से कैसे गला छूटेगा?
हलधर– भला पूछो तो काकी, कौन जानता था कि क्या सुदनी हैं। आगम देख के तब रुपये लिए थे। यह आफत न आ जाती तो १०० रु. का तो अकेले तेलहन निकल जाता। छाती-भर गेहूँ खड़ा था।
फत्तू– अब तो जो होना था वह हो गया। पछताने से क्या हाथ आयेगा?
राजेश्वरी– आदमी ऐसा काम ही क्यों करे कि पीछे से पछताना पड़े।
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