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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


फत्तू– कुछ तू ही थोड़े जायेगी। गाँव की सभी बुढ़ियां जायेंगी।

सलोनी– गंगा-असनान है क्या? पहले तो बुढ़िया छाँट कर न जाती थीं। मैं उमिर-भर कभी नहीं गयी। अब क्या बहुओं को परदा लगा है। गहने गढ़ा-गढ़ा तो वह पहने, बेगार करने बुढ़िया जायें।

फत्तू– अबकी कुछ ऐसी ही बात आ पड़ी है। हलधर के घर कोई बुढ़िया नहीं हैं। उसकी घरवाली कल की बहुरिया है, जा नहीं सकती। उसकी ओर से चली जा।

सलोनी– हाँ, उसकी जगह पर चली जाऊंगी। बेचारी मेरी बड़ी सेवा करती है। जब जाती हूँ तो बिना सिर में तेल डाले और हाथ-पैर दबाये नहीं आने देती। लेकिन बहली जूता देगा न।

फत्तू– बेगार करने रथ पर बैठ कर जायेगी।

हलधर– नहीं काकी, मैं बहली जूता दूँगा सबसे अच्छी बहली में तुम बैठना।

सलोनी– बेटा तेरी बड़ी उम्मिर हो, जुग-जुग जी। बहली में ढ़ोल मजीरा रख देना। गाती-बजाती जाऊँगी।

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