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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


चेतन– मैं तो यहां तक कहना हूं कि आत्मा के विकास में पापों का भी मूल्य है। उज्जवल प्रकाश सात रंगों के सम्मिश्रण से बनता है। उसमें लाल रंग का महत्त्व उतना ही है जितना नीले या पीले रंग की। उत्तम भोजन वही है जिसमें षटरसों का सम्मिश्रण हो। इच्छाओं को दमन करो, मनोवृत्तियों को रोको, यह मिथ्या तत्वादियों के ढकोसले है। यह सब अबोध बालकों को डराने के ‘जू-जू’ हैं। नदी के तट पर न जाओ, नहीं तो डूब जाओगे, यह मूर्ख माता-पिता की शिक्षा है। विचारशील प्राणी अपने बालक को नदी के तट पर केवल ले ही जाते वरन् उसे नदी में प्रविष्ट कराते हैं, उसे तैरना सिखाते हैं।

सबल– (मन में) कितनी मधुर वाणी है। वास्तव में प्रेम चाहे चाहे कलुषित ही क्यों न हो चरित्र-निर्माण में अवश्य अपना स्थान रखता है। (प्रकट) तो पाप कोई घृणित वस्तु नहीं।

चेतन– कदापि नहीं। संसार में कोई घृणित नहीं है, कोई वस्तु त्याज्य नहीं है। मनुष्य अहंकार के वश होकर अपने को दूसरे से श्रेष्ठ समझने लगता है। वास्तव में धर्म और अधर्म, सुविचार और कुविचार, पाप और पुण्य, यह सब मानवजीवन की मध्यवर्ती अवस्थाए मात्र हैं।

सबल– मन में कितना उदय हुआ है। (प्रकट) महाराज, आपके उपदेश से मेरे संतप्त हृदय को बड़ी शांति प्राप्त हुई।

[प्रस्थान]

चेतन– (आप-ही-आप) इस जिज्ञासा का आशय खूब समझता हूं। तुम्हारी अशांति का रहस्य खूब जानता हूं। तुम फिसल रहे थे, मैंने एक धक्का और दे दिया। अब तुम नहीं संभल सकते।

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