लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

269 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

दूसरा दृश्य

[समय– संध्या, स्थान– सबलसिंह की बैठक]

सबल– (आप-ही-आप) मैं चेतनदास को धूर्त समझता था, पर यह तो ज्ञानी महात्मा निकले। कितना, तेज और शौर्य है। ज्ञानी उनके दर्शनों को लालायित है। क्या हर्ज है। ऐसे आत्म-ज्ञानी पुरूषों के दर्शन से कुछ उपदेश ही मिलेगा।

[कंचनसिंह का प्रवेश]

कंचन– (तार दिखाकर) दोनों जगह हार हुई। पूना में घोड़ा कट गया। लखनऊ में जाकी घोड़े से गिर पड़ा।

सबल– यह तो तुमने बुरी खबर सुनायी। कोई पांच हजार का नुकसान हो गया।

कंचन– गल्ले का बाजार चढ़ गया। अगर अपना गेहूं दस दिन और न बेचता तो दो हजार साफ निकल आते।

सबल– पर आगम कौन जानता था।

कंचन– असामियों से एक कौड़ी वसूल होने की आशा नहीं। सुना है कई आसामी घर छोड़कर भागने की तैयारी कर रहे हैं। बैल-बधिया बेचकर जायेंगे। कब तक लौंटेगे, कौन जानता है। मरें, जियें, न जाने क्या हो। यत्न न किया गया तो ये सब रुपये भी मारे जायेंगे। पांच हजार के माथे जायेगी। मेरी राय है कि उन पर डिगरी कराके जायदादें नीलाम करा ली जायें। असामी सब-के-सब मातबर हैं, लेकिन ओलो ने तबाह कर दिया।

सबल– उसके नाम याद हैं?

कंचन– सबके नाम तो नहीं, लेकिन दस-पांच नाम छांट लिये हैं। जगरांव का लल्लू, तुलसी भूफोर, मधुबन का सीता, नब्बी, हलधर, चिरौंजी...

सबल– (चौंककर) हलधर के जिम्मे कितन रुपये हैं?

कंचन– सूद मिलाकर कोई २५० होंगे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book