नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
|
10 पाठकों को प्रिय 269 पाठक हैं |
मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सबल– (मन में) बड़ी विकट समस्या है। मेरे ही हाथों उसे यह कष्ट पहुंचे। इसके पहले मैं इन हाथों को ही काट डालूंगा। उसकी एक दया-दृष्टि पर ऐसे-ऐसे कई ढाई सौ न्यौछावर हैं। वह मेरी है, उसे ईश्वर ने मेरे लिए बनाया है, नहीं तो मेरे मन में उसकी लगन क्यों होती। समाज के अनर्गल नियमों ने उसके और मेरे बीच यह लोहे की दीवार खड़ी कर दी है। मैं इस दीवार को खोद डालूंगा। इस कांटे को निकालकर फूल को गले में डाल लूंगा। सांप को हटाकर मणि को अपने हृदय में रख लूंगा। (प्रकट) और असामियों की जायदाद नीलाम करा सकते हो, हलधर की जायदाद नीलाम कराने के बदले मैं उसे कुछ दिनों हिरासत की हवा खिलाना चाहता हूं। वह बदमाश आदमी है, गांववालों को भड़काता है। कुछ दिन जेल में रहेगा तो उसका मिजाज ठंडा हो जायेगा।
कंचन– हलधर देखने में तो बड़ा सीधा और भोला आदमी होता है।
सबल– बना हुआ है। तुम अभी उसके हथकड़ों की नहीं जानते। मुनीम से कह देना, वह सब कार्रवाई कर देगा। तुम्हें अदालत में जाने की जरूरत नहीं।
[कंचनसिंह का प्रस्थान]
सबल– (आप-ही-आप) ज्ञानियों ने सत्य ही कहा है कि काम के वश में पड़कर मनुष्य की विद्या विवेक सब नष्ट हो जाते हैं। यदि वह नीच प्रकृति है तो मनमाना अत्याचार करके अपनी तृष्णा को पूरी करता है, यदि विचारशील है तो कपट-नीति से अपना मनोरथ सिद्ध करता है। इसे प्रेम नहीं कहते, यह है काम-लिप्सा। प्रेम पवित्र, उज्जवल, स्वार्थ-रहित, सेवाश्रम, वासना-रहित वस्तु है। प्रेम वास्तव में ज्ञान है। प्रेम से संसार की सृष्टि हुई, प्रेम से ही उसका पालन होता है। यह ईश्वरीय प्रेम है। मानव-प्रेम वह है जीवन-मात्र को एक समझे, जो आत्मा की व्यापकता को चरितार्थ करें, जो प्रत्येक अणु में परमात्मा का स्वरूप देखे, जिसे अनुभूत हो कि प्राणी-मात्र एक ही प्रकाश की ज्योति है। प्रेम उसे कहते हैं। प्रेम के शेष जितने रूप हैं सब स्वार्थमय, पापमय हैं। ऐसे कोढ़ी को देखकर जिसके शरीर में कीड़े पड़ गये हों अगर हम विहृल हो जायें और उसे तुरन्त गले लगा लें तो वह प्रेम है। सुन्दर, मनोहर स्वरूप को देखकर सभी का चित्त आकर्षित होता है, किसी का कम, किसी का ज्यादा। जो साधनहीन है, क्रियाहीन है या पौरूषहीन हैं वे कलेजे पर हाथ रखकर रह जाते हैं और दो एक दिन में भूल जाते हैं। जो सम्पन्न हैं, चतुर हैं, साहसी हैं, उद्योगशील हैं, वह पीछे पड़ जाते हैं और अभीष्ट लाभ करके ही दम लेते हैं। यही कारण है कि प्रेम-वृत्ति अपने सामर्थ्य के बाहर बहुत कम जाती है। जार की लकड़ी कितनी हो सर्वगुणपूर्व हो पर मेरी वृत्ति उधर जाने का नाम न लेगी। वह जानती है कि वहां मेरी दाल न गलेगी। राजेश्वरी के विषय में मुझे संशय न था। वहां भाग्य प्रलोभन नृशंसता, किसी युक्ति का प्रयोग किया जा सकता था। अन्त में, यदि वे सब युक्तियां विफल होती तो...
[अचलसिंह का प्रवेश]
अचल– दादा जी, देखिए नौकर बड़ी गुस्ताखी करता है। अभी मैं फुटबाल देखकर आया हूं, कहता हूं, जूता उतार दे, लेकिन वह लालटेन साफ कर रहा है। सुनता ही नहीं। आप मुझे कोई अलग एक नौकर दे दीजिए, जो मेरे काम के सिवां और किसी का काम न करे।
|