नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सबल– हां, तुम्हारा यह प्रस्ताव बहुत अच्छा है। इस पर विचार करूंगा। देखो नौकर खाली हो गया, जाओ जूते खुलवा लो।
अचल– जी नहीं, अब मैं कभी नौकर से जूता उतरवाऊंगा ही नहीं, और न पहनूंगा। खुद ही पहन लूंगा, उतार लूंगा। आपने इशारा कर दिया वह काफी है।
[चला जाता है।]
सबल– (मन में) ईश्वर तुम्हें चिरायु करें, तुम होनहार देख पड़ते हो। लेकिन कौन जानता है, आगे चलकर क्या रंग पकड़ोगे। मैं आज के तीन महीने पहले अपनी सच्चरित्रता पर घमंड करता था। वह घमंड एक क्षण में चूर-चूर हो गया। खैर होगा...अगर और सब देनदारों पर दावा न हो, केवल हलधर ही पर किया जाये तो घोर अन्याय होगा। मैं तो चाहता हूं दावे सभी पर किये जायें, लेकिन जायदाद किसी की नीलाम न करायी जाये। असामियों को जब मालूम हो जायेगा कि हमने घर छोड़ा और जायदाद गयी तो वह कभी न जायेंगे। उनके भागने का एक कारण यह भी होगा कि लगान कहां से देंगे। मैं लगान मुआफ़ कर दूं तो कैसा हो। मेरा ऐसा ज्यादा नुकसान न होगा। इलाके में सब जगह तो ओले गिरे नहीं है। सिर्फ २-३ गांवों में गिरे हैं, ५००० रू. का मुआमला है। मुमकिन है इस मुआफ़ी की खबर गवर्नमेंट को भी हो जाये और मुआफ़ी का हुक्म दे दो, तो मुझे मुफ्त में यश मिल जायेगा और अगर सरकार न भी मुआफ करे तो इतने आदमियों का भला हो जाना ही कौन छोटी बात है। रहा हलधर, उसे कुछ दिनों के लिए अलग कर देने से मेरी मुश्किल आसान हो जायेगी। यह काम ऐसे गुप्त रीति से होना चाहिए कि किसी को कानों-कान खबर न हो। लोग यही समझें की कहीं परदेश निकल गया होगा। तब मैं एक बार फिर राजेश्वरी से मिलूं और तकदीर का फैसला कर लूं। तब उसे मेरे यहां आकर रहने में कोई आपत्ति न होगी। गांव में निरावलम्ब रहने से तो उसका चित्त स्वयं घबरा जायेगा। मुझे तो विश्वास है कि यहां सहर्ष चली आयेगी। यही मेरा अभीष्ट है। मैं केवल उसके समीप रहना, उसकी मृदु मस्कान, उसकी मनोहर वाणी...।
[ज्ञानी का प्रवेश]
ज्ञानी– स्वामीजी से आपकी भेंट हुई?
सबल– हां।
ज्ञानी– मैं उनके दर्शन करने जाऊं?
सबल– नहीं।
ज्ञानी– पाखंडी हैं न? यह तो मैं पहले ही समझ गयी थी।
सबल– नहीं पाखंडी नहीं है, विद्वान हैं, लेकिन मुझे किसी कारण से उनमें श्रद्धा नहीं हुई। पवित्रात्मा का यही लक्षण है कि वह दूसरों में श्रद्धा उत्पन्न कर दे। अभी थोड़ी देर पहले मैं उनका भक्त था। पर इतनी देर में उनके उपदेशों पर विचार करने पर ज्ञात हुआ कि उनसे तुम्हें ज्ञानोपदेश नहीं मिल सकता और न वह आशीर्वाद ही मिल सकता है जिससे तुम्हारी मनोकामना पूरी हो।
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