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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

पांचवा दृश्य

[स्थान-सबलसिंह का दीवानखाना, खस की टटि्टयां लगी हुई, पंखा चल रहा है। सबल शीतलपाटी पर लेटे हुए डेमोक्रेसी नामक ग्रंथ पढ़ रहे हैं, द्वार पर एक दरबान बैठा झपकियां ले रहा है। समय-दोपहर, मध्याह की प्रचंड धूप।]

सबल– हम अभी जनसत्तात्मक राज्य के योग्य नहीं है, कदापि नहीं है। ऐसे राज्य के लिए सर्वसाधारण में शिक्षा की प्रचुर मात्रा होनी चाहिए। हम अभी उस आदर्श से कोसो दूर हैं। इसके लिए महान स्वार्थ-त्याग की आवश्यकता है। जब तक प्रजा-मात्र स्वार्थ को राष्ट्र पर बलिदान करना नहीं सीखते इसका स्वप्न देखना मन की मिठाई खाना है। अमरीका, फ्रांस, दक्षिणी अमरीका आदि देशों ने बड़े समारोह से इसकी व्यवस्था की, पर उनमें से किसी को भी सफलता नहीं हुई। वहां अब भी धन और सम्पत्ति वालों के ही हाथों में अधिकार है। प्रजा अपने प्रतिनिधि कितनी सावधानी से ही क्यों न चुने, पर अन्त में सत्ता गिने-गिनायें आदमियों के ही हाथों में चली जाती है। सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था ही ऐसी दूषित है कि जनता का अधिकांश मुट्ठी भर आदमियों के वशवर्ती हो गया है। जनता इतनी निर्बल, इतनी अशक्त है कि इस शक्तिशाली पुरूषों के सामने सिर नहीं उठा सकती। यह व्यवस्था सर्वथा अपवादमय, विनष्टकारी और अत्याचारपूर्ण है। आदर्श व्यवस्था यह है कि सब के अधिकार बराबर हों, कोई जमींदार बन कर, कोई महाजन बन कर जनता पर रोब न जमा सके। यह ऊंच-नीच का घृणित भेद उठ जाये। इस सबल-निबल संग्राम में जनता की दशा बिगड़ती चली जाती है। इसका सब से भंयकर परिणाम यह है कि जनता आत्मसम्मान-विहीन होती जाती है, उसमें प्रलोभनों का प्रतिकार करने, अन्याय का सिर कुचलने की सामर्थ्य नहीं रही। छोटे-छोटे स्वार्थ के लिए बहुधा भयवश कैसे-कैसे अनर्थ हो रहे हैं।...(मन में) कितनी यथार्थ बात लिखी है। आज ऐसा कोई असामी नहीं है जिसके घर में मैं अपने दुष्टाचरण का तीर न चला सकूं। मैं कानून के बल से, भय के बल से, प्रलोभन के बल से अपना अभीष्ट पूरा कर सकता हूं। अपनी शक्ति का ज्ञान हमारे दुस्साहस को, कुभावों को और उत्तेजित कर देता है। खैर! हलधर को जेल गये हुए आज दसवां दिन है, मैं गांव की तरफ नहीं गया। न जाने राजेश्वरी पर क्या गुजर रही है। कौन मुंह लेकर जाऊँ? अगर कहीं गांववालों को यह चाल मालूम होगी तो मैं वहां मुंह भी न दिखा सकूंगा। राजेश्वरी को अपनी दशा चाहे कितनी कष्टप्रद जान पड़ती हो, पर उसे हलधर से प्रेम है। हलधर का द्रोही बन कर मैं उसके प्रेम-रस को नहीं पा सकता। क्यों न कल चला जाऊं, इस उधेड़-बुन में कब तक पड़ा रहूंगा। अगर गांववालों पर यह रहस्य खुल गया होगा तो मैं विस्मय दिखा कर कह सकता हूं कि मुझे खबर नहीं है आज ही पता लगाता हूं। सब तरह उनकी दिलजोई करनी होगी और हलधर को मुक्त कराना पड़ेगा। सारी बाजी इसी दांव पर निर्भर है। मेरी भी क्या हालत है, पढ़ता हूं डेमोक्रेसी और...अपने को धोखा देना व्यर्थ है। यह प्रेम नहीं है, केवल काम-लिप्सा है। प्रेम दुर्लभ वस्तु है, यह उस अधिकार का जो मुझे असामियों पर है, दुरुपयोग-मात्र है।

[दरबान आता है]

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