नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
राजेश्वरी– (आप-ही-आप) बुढ़िया सो रही है, अब मैं चलने की तैयारी करूं। क्षत्री लोग रन पर जाते थे तो खूब सूज कर जाते थे। मैं भी कपड़े-लत्ते से लैस हो जाऊं। वह पांचों हथियार लगाते थे। मेरे हथियार मेरे गहने हैं। वहीं पहन लेती हूं। वह केसर का तिलक लगाते थे। मैं सिंदूर का टीका लगा लेती हूं। वह मलिच्छों का संहार करने जाते थे मुझे देवता का संहार करना है। भगवती तुम मेरी सहाय हो...लेकिन क्षत्री लोग तो हंसते हुए घर से बिदा होते थे। मेरी आंखों में आंसू भरे आते हैं। आज यह घर छूटता है! इसे सातवें दिन लीपती थी, त्योहारों पर पोतनी मिट्टी से पोतती थी। कितनी उमंग से आंगन में फुलवारी लगाती थी। अब कौन इसकी इतनी सेवा करेगा। दो ही चार दिनों में यहां भूतों का डेरा हो जायेगा। हो जाये! जब घर का प्राणी ही नहीं रहा तो घर लेकर क्या करूं? आह, पैर बाहर नहीं निकलते, जैसे दिवारें खींच रही हों। इनसे गले मिल लूं। गाय-भैंस कितने साध से ली थीं। अब इनसे भी नाता टूटता है। दोनों गाभिन हैं। इनके बच्चों को भी न खेलाने पायी। बेचारी हुड़क-हुड़क कर मर जायेंगी। कौन इन्हें मुंह अंधेरे भूसा खली देगा, कौन इन्हें तालाब में नहलायेगा। दोनों मुझे देखते ही खड़े हो गयी। मेरी ओर मुंह बढ़ा रही हैं, पूछ रही है कि आज कहां की तैयारी है। हाय! कैसे प्रेम से मेरे हाथों को चाट रही हैं! इनकी आंखों से कितना प्यार है! आओ आज चलते-चलते तुम्हें अपने हाथों से दाना खिला दूं! हां भगवान, दाना नहीं खाती, मेरी ओर मुंह करके ताकती हैं। समझ रही हैं कि यह इस तरह बहला कर हमें छोडे जाती है। इनके पास से कैसे जाऊं? रस्सी तुड़ा रही है, हुंकार मार रही हैं। वह देखो, बैल भी उठ बैठे। वह गये, इन बेचारों की सेवा न हो सकी। वह इन्हें घंटों सुहलाया करते थे। लोग कहते हैं तुम्हें आनेवाली बातें मालूम हो जाती हैं। कुछ तुम ही बताओ, वह कहां है, कैसे हैं, कब आयेंगे? क्या अब कभी उनकी सूरत देखनी न नसीब होगी? ऐसा जान पड़ता है, इनकी आंखों में आसू भरे हैं। जाओ, अब तुम सभी को भगवान के भरोसे छोड़ती हूं। गांववालों को दया आयेगी तो तुम्हारी सुधि लेंगे, नहीं तो यहीं भूखे रहोगे। फत्तू मियां तुम्हारी सेवा करेंगे। उनके रहते तुम्हें कोई कष्ट न होगा। वह दो आंखें भी न करेंगे कि अपने बैलों को दाना और खली दें, तुम्हारे सामने सूखा भूसा डाल दें, लो अब बिदा होती हूं। भोर हो रहा है, तारे मद्धिम पड़ने लगे। चलो मन, इस रोने-बिसूरने से काम न चलेगा। अब तो मैं हूं और पड़ने लगे। चलो मन, इस रोने-बिसूरने से काम न चलेगा। अब तो मैं हूं और प्रेम-कौश का रनछेत्र है। भगवती का और उनसे भी अधिक अपनी दृढ़ता का भरोसा है।
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