नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सबल– तुम्हारा घर है, आनंद से रहो। धन्य भाग कि मुझे आज यह अवसर मिला। मैं इतना भाग्यवान हूं. मुझे इसका विश्वास ही न था। मेरी तो यह हालत हो रही है–
हमारे घर में वह आयें खुदा की कुदरत है।
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं।
ऐसा बौखला गया हूं कि कुछ समझ में ही नहीं आता, तुम्हारी कैसे खिदंमत करूं।
राजेश्वरी– मुझे इसी बंगले में रहना होगा?
सबल– ऐसा होता तो क्या पूछना था, पर यहां बखेड़ा है, बदनामी होगी। मैं आज ही शहर में एक अच्छा मकान ठीक कर लूंगा। सब इंतजाम वहीं हो जायेगा।
राजेश्वरी– (प्रेम कटाक्ष से देखकर) प्रेम करते हो और बदनामी से डरते हो। यह कच्चा प्रेम है।
सबल– (झेप कर) अभी नया रंगरूट हूं न।
राजेश्वरी– (सजल नेत्रों से) मैंने अपना सर्वस आपको दे दिया। अब लाज आपके हाथ है।
सबल– (उसके दोनों हाथ पकड़ कर तस्कीन देते हुए) राजेश्वरी, मैं तुम्हारी इस कृपा को कभी न भूलूंगा। मुझे भी आज से अपना सेवक, अपना चाकर, जो चाहे समझो।
राजेश्वरी– (मुस्कराकर) आदमी अपने सेवक की सरन नहीं जाता, आपके स्वामी की सरन आता है। मालूम नहीं आप मेरे मन के भावों को जानते हैं या नहीं, पर ईश्वर ने आपको इतनी विद्या और बुद्धि दी है, आपसे कैसे छिपा रह सकता है। मैं आपके प्रेम, केवल आपके प्रेमवश होकर आयी हूं। पहली बार जब आपकी निगाह मुझ पर पड़ी तो उसने मुझ पर मंत्र-सा फूंक दिया। मुझे उनमें प्रेम की झलक दिखायी दी। तभी से मैं आपकी हो गयी। मुझे भोगविलास की इच्छा नहीं, मैं केवल आपको चाहती हूं। आप मुझे झोपड़ी में रखिए, मुझे गजी-गाढ़ा पहनाएं, मुझे उनमें भी सरग का आनंद मिलेगा। बस आपकी प्रेम-दृष्टि मुझ पर बनी रहे।
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