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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


सबल– (गर्व के साथ) मैं जिंदगी-भर तुम्हारा रहूंगा और केवल तुम्हारा। मैंने उच्च कुल में जन्म पाया। घर में किसी की कमी नहीं थी। मेरा पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार से हुआ जैसा रईसों के लड़कों का होता है। घर में बीसियों युवती महरियां, महराजिनें थीं। उधर नौकर-चाकर भी मेरी कुवृत्तियों को भड़काते रहते थे। मेरे चरित्र-पतन के सभी सामान जमा थे। रईसों के अधिकांश युवक इसी तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। पर ईश्वर की मुझ पर कुछ ऐसी दया थी कि लड़कपन ही से मेरी प्रवृति विद्याभ्यास की ओर थी और उसने युवावस्था में भी साथ न छोड़ा। मैं समझने लगा था, प्रेम कोई वस्तु ही नहीं, केवल कवियों की कल्पना है। मैंने एक-से एक यौवनवती सुंदरियां देखी हैं, पर कभी मेरा चित्त विचलित नहीं हुआ। तुम्हें देख कर पहली बार मेरी हृदयवीणा के तारों में चोट लगी। मैं इसे ईश्वर की इच्छा के सिवाय और क्या कहूं। तुमने पहली ही निगाह में मुझे प्रेम का प्याला पिला दिया, तब से आज तक उसी नशे में मस्त था। बहुत उपाय किये, कितनी ही खटाइयां खायी पर यह नशा न उतरा। मैं अपने मन के इस रहस्य को अब तक नहीं समझ सका। राजेश्वरी, सच कहता हूं, मैं तुम्हारी ओर से निराश था। समझता था, अब यह जिंदगी रोते ही कटेगी, पर भाग्य को धन्य है कि आज घर बैठे देवी के दर्शन हो गये और जिस वरदान की आशा थी वह भी मिल गया।

राजेश्वरी– मैं एक बात कहना चाहती हूं, पर संकोच के मारे नहीं कह सकती।

सबल– कहो-कहो, मुझसे क्या संकोच! मैं कोई दूसरा थोड़े ही हूं।

राजेश्वरी– न कहूंगी, लाज आती है।

सबल– तुमने मुझे चिंता में डाल दिया, बिना सुने मुझे चैन न आयेगा।

राजेश्वरी– कोई ऐसी बात नहीं है, सुन कर क्या कीजियेगा!

सबल– (राजेश्वरी के दोनों हाथ पकड़ कर) बिना कहे न जाने दूंगा, कहना पड़ेगा।

राजेश्वरी– (असमंजस में पड़ कर) मैं सोचती हूं, कहीं आप यह समझे कि जब यह अपने पति की हो कर न रही तो मेरी होकर क्या रहेगी। ऐसी चंचल औरत का क्या ठिकाना?

सबल– बस करो राजेश्वरी, अब कुछ मत कहो। तुमने मुझे इतना नीच समझ लिया। अगर मैं तुम्हें अपना हृदय खोल कर दिखा सकता तो तुम्हें मालूम होता कि मैं तुम्हें क्या समझता हूं। वह घर, उस घर के प्राणी, वह समाज, तुम्हारे योग्य न थे। गुलाब की शोभा बाग में है, घूर पर नहीं। तुम्हारा वही रहना उतना अस्वाभाविक था जितना सुअर के माथे पर सेंदुर का टीका होता है या झोपड़ी में झाड़। वह जलवायु तुम्हारे सर्वथा प्रतिकूल था। हंस मरूभूमि में नहीं रहता। इसी तरह अगर मैं सोचूं, कहीं तुम यह न समझो कि जब यह अपनी विवाहित स्त्री का न हुआ तो मेरा क्या होगा तो?

राजेश्वरी– गभ्भीरता से मुझसे और आपमें बड़ा अंतर है।

सबल– यह बातें फिर होंगी इस वक्त आराम करो, थक गयी होगी। पंखा खोले देता हूं। सामने वाली कोठरी में पानी-पानी सब रखा हुआ है। मैं अभी आता हूं।

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