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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

सातवां दृश्य

[समय– प्रातःकाल, ज्येष्ठ। स्थान– गंगा का तट। राजेश्वरी एक सजे हुए कमरे में मसनद लगाये बैठी है। दो-तीन लौडियां इधर-उधर दौड़कर काम कर रही हैं। सबलसिंह का प्रवेश]

सबल– अगर मुझे उषा का चित्र खींचना हो तो तुम्हीं को नमूना बनाऊं। तुम्हारे मुख पर मंद समीरण से लहराते हुए केश ऐसी शोभा दे रहे हैं मानों...

राजेश्वरी– दो नागिनें लहराती चली जाती हों, किसी प्रेमी को डसने के लिए।

सबल– तुमने हंसी में उड़ा दिया, मैंने बहुत ही अच्छी उपमा सोची थी।

राजेश्वरी– खैर, यह बताइए तीन दिन तक दर्शन क्यों नहीं दिया?

सबल– (असमंजस में पड़कर) मैंने समझा शायद मेरे रोज आने से किसी को संदेह हो जाये।

राजेश्वरी– मुझे इसकी कुछ परवाह नहीं है। आपको यहां नित्य आना होगा। आपको क्या मालूम है कि यहां किस तरह तड़प-कर दिन काटती हूं।

सबल– राजेश्वरी, मैं अपनी दशा कैसे दर्शाऊं। बस यही समझ लो जैसे पानी बिना मछली तड़पती हो। न सैर करने को जी चाहता है, न घर से निकलने का, न किसी से मिलने-जुलने का, यहां तक कि सिनेमा देखने को भी जी नहीं चाहता। जब यहां आने लगता हूं तो ऐसी प्रबल उत्कंठा होती है कि उड़ कर आ पहुंचूं। जब यहां से चलता हूं तो ऐसा जान पड़ता है कि मुकदमा हार आया हूं। राजेश्वरी, पहले मेरी केवल यही इच्छा थी कि तुम्हें आंखों से देखता रहूं, तुम्हारी मधुर वाणी सुनता रहूं। तुम्हें अपनी देवी बनाकर पूजना चाहता था, पर जैसे ज्वर में जल से तृप्ति नहीं होती, जैसे नयी सभ्यता में विलास की वस्तुओं से तृप्ति नहीं होती, वैसे ही प्रेम का भी हाल है, वह सर्वस्व देना और सर्वस्व लेना चाहता है। इतना यत्न करने पर भी घर के लोग मुझे चिंतित नेत्रों से देखने लगे हैं। उन्हें मेरे स्वभाव में कोई बात नजर आती है जो पहले नहीं आती थी। न जाने इसका क्या अंत होगा।

राजेश्वरी– इसका जो अंत होगा वह मैं जानती हूं और उसे जानते हुए मैंने इस मार्ग पर पांव रखा है। पर उन चिन्ताओं को छोड़िए। जब ओखली में सिर दिया है तो मूसलों का क्या डर। मैं यही चाहता हूं कि आप दिन में किसी भी समय अवश्य आ जाया करें। आपको देख कर मेरे चित्त की ज्वाला शांत हो जाती है जैसे जलते हुए घाव पर मरहम लग जाये। अकेले मुझे डर भी लगता है कि कहीं वह हलजोत किसान मेरी टोह लगाता हुआ आ न पहुंचे। यह भय सदैव मेरे हृदय पर छाया रहता है। उसे क्रोध आता है तो वह उन्मत्त हो जाता है। उसे जरा भी खबर मिल गई तो मेरी जान की खैरियत नहीं है।

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