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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


अचल– यह तो और भी अच्छा है। तरह-तरह की चीजें, नये-नये दृश्य देखने में आयेंगे। और मुल्कों में तो लड़कों को सरकार की तरफ की से सैर करने का मौका दिया जाता है। किताबों में भी लिखा है कि बिना देशाटन किये अनुभव नहीं होता, और भूगोल जानने का तो इसके सिवा कोई अन्य उपाय नहीं है। नक्शों और माडलों के देखने से क्या होता है। मैं इस मौके को न जाने दूंगा।

सबल– बेटा, तुम कभी-कभी व्यर्थ में जिद करने लगते हो। मैंने कह दिया कि मैं इस वक्त अकेले ही जाना चाहता हूं, यहां तक कि किसी नौकर को भी साथ नहीं ले जाता। अगले वर्ष मैं तुम्हें इतनी सैरें करा दूंगा कि तुम ऊब जाओगे। (अचल उदास होकर चला जाता है।) अब सफर की तैयारी करूं। मुख्तसर ही समान ले जाना मुनासिब होगा। रुपये हों तो जंगल में भी मंगल हो सकता है। आज शाम को राजेश्वरी से भी चलने की तैयारी करने को कह दूंगा, प्रातःकाल हम दोनों यहां से चले जायें। प्रेम-पाश में फंसकर देखूं, नीति का, धर्म का बलिदान करना पड़ता है, और किस-किस वन की पत्तियां तोड़नी पड़ती है।

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