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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

दूसरा दृश्य

(स्थान– राजेश्वरी का सजा हुआ कमरा समय– दोपहर।)

लौंडी– बाई जी, कोई नीचे पुकार रहा है।

राजेश्वरी– (नींद से चौंककर) क्या कहा आग लगी है?

लौंडी– नौज, कोई आदमी नीचे पुकार रहा है।

राजेश्वरी– पूछा नहीं कौन है, क्या कहता है किस मतलब से आया है? संदेसा लेकर दौड़ चली, कैसे मजे का सपना देख रही थी।

लौड़ी– ठाकुर साहब ने तो कह दिया है कि कोई कितना ही पुकारे कोई हाँ, किवाड़ न खोलना, न कुछ जवाब देना। इसलिए मैंने कुछ पूछताछ नहीं की।

राजेश्वरी– मैं कहती हूँ जाकर पूछो कौन है?

(महतारी जाती है और एक क्षण में लौट आती है।)

लौंडी– अरे बाई जी, बड़ा गजब हो गया तो ठाकुर साहब के छोटे भाई बाबू कंचनसिंह है। अब क्या होगा?

राजेश्वरी– होगा क्या, जाकर बुला ला।

लौंडी– ठाकुर साहब सुनेंगे तो मेरे सिर का एक बाल भी न छोड़ेंगे।

राजेश्वर– तो ठाकुर साहब तो सुनाने कौन जायेगा। अब यह तो नहीं हो सकता कि उनके भाई द्वार पर आयें और मैं उनकी बात तक न पूछूं। वह अपने मन क्या कहेंगे! जाकर बुला ला और दीवानखाने में बिठला। मैं आती हूं।

लौंडी– किसी ने पूछा तो मैं कह दूंगी, अपने बाल न नुचवाऊंगी।

राजेश्वरी– तेरा सिर देखने से तो यही मालूम होता है कि एक नहीं कई बार बाल नुच चुके हैं। मेरी खातिर से एक बार और नुचवा लेना। यह लो इसमें बालों के बढ़ने की दवा ले लेना।

(लौंड़ी चली जाती है।)

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