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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

तीसरा दृश्य

(स्थान– सबलसिंह का घर, सबलसिंह बगीचे में हौज के किनारे मसहरी के अंदर लेटे हुए हैं। समय ११ बजे रात।)

सबल– (आप-ही-आप) आज मुझे इसके बर्ताव में कुछ रुखाई सी मालूम होती है मेरा बहम नहीं है, मैंने बहुत विचार से देखा। मैं घंटे भर से बैठा चलने के लिए जोर देता रहा, पर उसने एक बार नहीं करके फिर ‘हाँ’ न की। मेरी तरफ एक बार भी उन प्रेम की चितवनों से नहीं देखा जो मुझे मस्त कर देती है। कुछ गुम-सुम सी बैठी रही। कितना कहा कि तुम्हारे न चलने से घोर अनर्थ होगा। यात्रा की सब तैयारियाँ कर चुका हूँ, लोग मन में क्या कहेंगे कि पहाड़ों की सैर का इतना ताव था, और इतना जल्दी ठंडा हो गया; लेकिन मेरी सारी अनुनय-विनय एक तरफ और उसकी ‘नहीं’ एक तरफ। इसका कारण क्या है? किसी ने बहका तो नहीं दिया। हाँ एक बात याद आयी। उसके इस कथन का क्या आशय हो सकता है कि हम चाहे जहाँ जायें टोहियों और गोयंदों से बच न सकेंगे। क्या यहाँ टोहिए आ गये? इसमें कंचन की कुछ कारस्तानी मालूम होती है। टोहियेपन की आदत उन्हीं में है। उनका उस दिन उचक्कों की भाँति इधर-उधर, ऊपर नीचे ताकते जाना निरर्थक नहीं था। इन्होंने कल मुझे रोकने की कितनी चेष्टा की थी। ज्ञानी की निगाह भी कुछ बदली हुई देखता हूं। यह सारी आग कंचन की लगाई हुई है। तो क्या कंचन वहाँ गया था? राजेश्वरी के सम्मुख जाने की इसे क्योंकर हिम्मत हुई। किसी महफिल में तो आज तक गया नहीं। बचपन से ही औरतों को देखकर झेपता है। वहाँ कैसे गया। जाने क्योंकर पाया। मैंने तो राजेश्वरी से सख्त ताकीद कर दी थी कि कोई भी यहाँ न आने पाये। उसने मेरी ताकीद की कुछ परवाह न की। दोनों नौकरानियाँ भी मिल गयीं। यहाँ तक कि राजेश्वरी ने इनके जाने की कुछ चर्चा नहीं की। मुझसे बात छिपायी, पेट रखा। ईश्वर, मुझे यह किन पापों का दंड मिल रहा है? अगर कंचन मेरे रास्ते में पड़ते हैं तो पड़े, परिणाम बुरा होगा। अत्यंत भीषण। मैं जितना ही नम्र हूँ उतना ही कठोर भी हो सकता हूँ। मैं आज से ताक में हूँ। अगर निश्चय हो गया कि इसमें कंचन का कुछ हाथ है तो मैं उसके खून का प्यासा हो जाऊँगा। मैंने कभी उसे कड़ी निगाह से नहीं देखा। पर उसकी इतनी जुर्रत! अभी यह खून बिल्कुल ठंडा नहीं हुआ है, उस जोश का कुछ हिस्सा बाकी है, जो कटे हुए सिरों और तड़पती हुई लाशों का दृश्य देखकर मतवाला हो जाता था। इन बाहों में अभी दम है, यह अब भी तलवार और भाले का वार कर सकती है। मैं अबोध बालक नहीं हूं कि मुझे बुरे रास्ते से बचाया जाये, मेरी रक्षा की जाये। मैं अपना मुखतार हूं जो चाहूं करूँ। किसी को चाहे वह मेरा भाई ही क्यों न हो, मेरी भलाई और हित कामना का ढोग रचने की जरूरत नहीं। अगर बात यहीं तक है तो गनीमत है, लेकिन इसके आगे बढ़ गई है तो फिर कुल की खैरियत नहीं। इसका सर्वनाश हो जायेगा और मेरे ही हाथों। कंचन को एक बार सचेत कर देना चाहिए।

(ज्ञानी आती है।)

ज्ञानी– क्या अभी तक सोये नहीं? बारह तो बज गये होंगे।

सबल– नींद को बुला रहा हूँ, पर इसका स्वभाव तुम्हारे जैसा है। आप-ही-आप आती है पर बुलाने से मना करने लगती है। तुम्हें नींद क्यों नहीं आयी?

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