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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


राजेश्वरी– (हंसकर) ऐसी धमकियों का तो प्रेम-बर्ताव में कुछ अर्थ नहीं होता, लेकिन मैं आपको उन आदमियों में नहीं समझती। मैं आपके सरल स्वभाव और आपकी निष्कपट बातों पर मोहित हो गई हूँ। आपके लिए मैं सब कष्ट सहने को तैयार हूँ। पर आपसे यही बिनती है कि मुझ पर कृपादृष्टि बनाये रखिएगा और कभी-कभी दर्शन देते रहिएगा।

(राजेश्वरी गाती है।)

क्या सो रहा मुसाफिर बीती है रैन सारीः
अब जाग के चलन की कर ले सभी तैयारी।।
तुझको है दूर जाना, नहीं पास कुछ खजाना,
आगे नहीं ठिकाना होवे बड़ी खुआरी ।।टेक।।
पूंजी सभी गमाई कुछ ना करी कमाई,
क्या लेके घर को जाई करजा किया है भारी।
क्या सो रहा...।


(कंचन चला जाता है।)

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