नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सबल– (मन में) क्या करे बेचारी किसी तरह मन तो बहलाये। मैंने एक तरफ इससे मिलना ही छोड़ दिया। बैठे-बैठे जी ऊब गया होगा। मेरी आज्ञा ऐसी कौन महत्त्व की वस्तु है। जब नौकर-चाकर जब चाहते है उसे भंग कर देते हैं और मैं उनका कुछ नहीं कर सकता तो इस पर क्यों गर्म पडूं। मैं खुली आंखों धर्म और नीति को भंग कर रहा हूं, ईश्वरीय आज्ञा से मुंह मोड़ रहा हूँ तो मुझे कोई अधिकार नहीं कि इसके साथ जरा-सी बात के लिए सख्ती करूँ (प्रकट) यह कोई अपराध नहीं, और न मेरी आज्ञा इतनी अटल है कि भंग ही न की जाय। अगर तुम इसे अपराध समझती हो तो मैं इसे सहर्ष क्षमा करता हूँ।
ज्ञानी– स्वामी आपके बर्ताव में आजकल क्यों इतना अन्तर हो गया है? आपने क्यों मुझे बंधनों से मुक्त कर दिया है, मुझ पर पहले ही भाँति शासन क्यों नहीं करते? नाराज क्यों नहीं होते, कटु शब्द क्यों नहीं कहते, पहले की भाँति रूठते क्यों नहीं, डांटते क्यों नहीं? आपकी यह सहिष्णुता देखकर मेरे अबोध मन में भाँति-भाँति की शंका उठने लगती है कि यह प्रेम बंधन का ढीलापन न हो।
सबल– नहीं प्रिये, यह बात नहीं है, देश-देशांतर के पत्र-पत्रिकाओं को देखता हूँ तो वहाँ की स्त्रियों की स्वाधीनता के सामने यहाँ का कठोर शासन कुछ अच्छा नहीं लगता। अब स्त्रियाँ कौन्सिलों में जा सकती हैं, वकालत कर सकती हैं, यहाँ तक कि भारत में भी स्त्रियों को अन्याय के बंधन से मुक्त किया जा रहा है, तो क्या मैं ही सब से गया-बीता हूं कि वही पुरानी लकीर पीटे जाऊं।
ज्ञानी– मुझे तो उस राजनीतिक स्वाधीनता के सामने प्रेम-बंधन कहीं सुखकर जान पड़ता है। मैं वह स्वाधीनता नहीं चाहती।
सबल– (मन में) भगवान, इस अपार प्रेम का मैंने कितना घोर अपमान किया है? इस सरल हृदय के साथ मैंने कितनी अनीति की है? आंखों में आंसू क्यों भरे आते हैं? मुझ जैसा कुटिल मनुष्य इस देवी के योग्य नहीं था। (प्रकट) प्रिये, तुम मेरी ओर से लेश-मात्र भी शंका न करो। मैं सदैव तुम्हारा हूँ और रहूँगा। इस समय गाना सुनने का जी चाहता है। वही अपना प्यारा गीत गा कर मुझे सुना दो।
(ज्ञानी सरोद ला कर सबलसिंह को दे देती है। गाने लगती है।)
माता छोड़ी पिता छोड़े छोड़े सगा सोई,
सन्तन संग बैठि-बैठि लोक लाज खोयी।
अब तो०।।
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