नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
चौथा दृश्य
(स्थान– गंगा तट, बरगद के घने वृक्ष के नीचे तीन-चार आदमी लाठियाँ और तलवारें लिये बैठे हैं, समय-१० बजे रात।)
एक डाकू– १० बजे, अभी तक लौटी नहीं।
दूसरा– तुम उतावले क्यों हो जाते हो। जितनी ही देर में लौटेगी उतना ही सन्नाटा होगा, अभी इक्के-दुक्के रास्ता चल रहा है।
तीसरा– इसके बदन पर कोई पाँच हजार के गहने तो होंगे?
चौथा– सबलसिंह कोई छोटा आदमी नहीं है। उसकी घरवाली बन-ठन कर निकलेगी तो दस हजार से कम माल नहीं।
पहला– यह शिकार आज हाथ आ जाये तो कुछ दिनों चैन से बैठना नसीब हो। रोज-रोज रात-भर घात में बैठे रहना अच्छा नहीं लगता है। यह सब कुछ करके भी शरीर को आराम न मिला तो बात ही क्या रही।
दूसरा– भाग्य में आराम बदा तो यह कुकरम न करने पड़ते। कहीं सेठों की तरह गद्दी-मसनद लगाये बैठे होते। हमें चाहे कोई खजाना ही मिल जाये पर आराम नहीं मिल सकता।
तीसरा– कुकरम क्या हमीं करते हैं, कुकरम तो संसार कर रहा है। सेठजी रोजगार के नाम से डाका मारते है, अगले घूस के नाम से डाका मारते हैं, वकील मेहनताना के नाम से डाका मारता है। पर उन डकैतों के महल खड़े है, हवागाड़ियों पर सैर करते-फिरते हैं, पेचवान लगाये, मखमली गद्दियों पर खड़े रहते हैं। सब उनका आदर करते हैं, सरकार उन्हें बड़ी-बड़ी पदवियां देती है। हमी लोगों पर विधाता की निगाह क्यों इतनी कड़ी रहती है?
चौथा– काम करने का ढंग है। वह लोग पढ़े-लिखे हैं। इसलिए हमसे चतुर हैं। कुकरम भी करते हैं और मौज भी उड़ाते हैं। वही पत्थर मंदिर में पुजता है और वही नालियों में लगाया जाता है।
पहला– चुप, कोई आ रहा है।
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