नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
पांचवा दृश्य
[स्थान– मधुबन, समय– ९ बजे रात, बादल घिरा हुआ है, एक वृक्ष के नीचे बाबा चेतनदास मृगछाले पर बैठे हुए है। फत्तू, मंगरू, हरदास आदि धूनी से जरा हट कर बैठे हैं।]
चेतनदास– संसार कपटमय है, किसी प्राणी का विश्वास नहीं। जो बड़े ज्ञानी, बड़े त्यागी धर्मात्मा प्राणी हैं– उनकी चित्तवृत्ति को ध्यान से देखो तो स्वार्थ से भरा पाओगे। तुम्हारा जमींदार धर्मात्मा समझा जाता है, सभी उसके यश और कीर्ति की प्रशंसा करते हैं। पर मैं कहता हूं, ऐसा अत्याचारी, कपटी, धूर्त, भ्रष्टाचारी मनुष्य संसार में न होगा।
मंगरू– बाबा, आप महात्मा हैं, आपकी जबान कौन पकड़े, पर हमारे ठाकुर सचमुच देवता हैं। उनके राज में हमको जितना सुख है उतना कभी नहीं था।
हरदास– जेठी की लगान माफ कर दी थी। अब असामियों को भूसे-चारे के लिए बिना ब्याज के रुपये दे रहे हैं।
फत्तू– उनमें और चाहे कोई बुराई हो पर असामियों पर हमेशा परवरिस की निगाह रखते हैं।
चेतनदास– यही तो उनकी चतुराई है कि अपना स्वार्थ भी सिद्ध कर लेता है और अपकीर्ति भी नहीं होने देता। रुपये से, मीठे वचन से, नम्रता से लोगों को वशीभूत कर लेता है।
मंगरू– महाराज, आप उनका स्वभाव नहीं जानते जभी ऐसा कहते हैं। हम तो उन्हें सदा से देखते आते हैं। कभी ऐसी नीयत नहीं देखी है कि किसी से एक पैसा बेसी ले लें। कभी किसी तरह की बेगार नहीं ली, और निगाह का तो ऐसा साफ आदमी कहीं देखा ही नहीं।
हरदास– कभी किसी पर निगाह नहीं डाली।
चेतनदास– भली प्रकार सोचो, अभी हाल ही में कोई स्त्री यहां से निकल गयी है?
फत्तू– (उत्सुक होकर) हां, महाराज, अभी थोड़े ही दिन हुए।
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