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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


चौथा– बस टूट पड़ो जिससे कहार भाग खड़े हो।

[ज्ञानी की पालकी आती है। चारों डाकू तलवारें लिये कहारों पर जा पड़ते हैं। कहार पालकी पटक कर भाग खड़े होते हैं। गुलाबी बरगद की आड़ में छिप जाती है।]

एक डाकू– ठकुराइन, जान की खैर चाहती हो तो सब गहने चुपके से उतार के रख दो। अगर गुल मचाया या चिल्लायी तो हमें जबरदस्ती तुम्हारा मुंह बंद करना पड़ेगा, और हम तुम्हारे ऊपर हाथ नहीं उठाना चाहते।

दूसरा– सोचती क्या हो, यहां ठाकुर सबलसिंह नहीं बैठे हैं तो बंदूक लिये आते हों। चटपट उतारो।

तीसरा– (पालकी का परदा उठाकर) यह यों न मानेगी, ठकुराइन है न, हाथ पकड़ कर बांध दो, उतार लो सब गहने।

[हलधर लपक कर उस डाकू पर लाठी चलाता है और वह हाथ मार कर बेहोश हो जाता है। तीनों बाकी डाकू उस पर टूट पड़ते हैं। लाठियां चलने लगती हैं।]

हलधर– वह मारा, एक और गिरा।

एक डाकू– भाई तुम जीते हम हारे, शिकार क्यों भगाये देते हो माल में आधा तुम्हारा।

हलधर– तुम हत्यारे हो, अबला स्त्रियों पर हाथ उठाते हो, मैं अब तुम्हें जीता न छोड़ूंगा।

डाकू– यार, दस हजार से कम का माल नहीं है। ऐसा अवसर फिर न मिलेगा। थानेदार को १०० रु. २०० रु. दे कर टरका देंगे। बाकी सारा अपना है।

हलधर– लाठी तान कर जाते हो या हड्डी तोड़ के रख दूंगा।

[दोनों डाकू भाग जाते हैं। हलधर कहारों को बुलाता है जो एक मंदिर में छिपे बैठे हैं। पालकी उठती है।]

ज्ञानी– भैया, आज तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है इसका फल तुम्हें ईश्वर देंगे, लेकिन मेरी इतनी बिनती है कि मेरे घर तक चलो। तुम देवता हो, तुम्हारी पूजा करूंगी।

हलधर– रानी जी, यह तुम्हारी भूल है। मैं न देवता हूं न दैत्य। मैं भी घातक हूं। पर मैं अबला औरतों का घातक नहीं, हत्यारों ही का घातक हूं, जो धन के बल से गरीबों को लूटते हैं, उनकी इज्जत बिगाड़ते हैं, उनके घरों को भूतों का डेरा बना देते हैं। जाओ अब से गरीबों पर दया रखना। नालिस, कुड़की, जेल, यह सब होने देना।

[नदी की ओर चला जाता है। गाता है।]

दूजी सखी बोली सुनो सखियों मेरा पिया जुआरी है।
रात-रात भर फड़ पर रहता, बिगड़ी दसा हमारी है।
घर और बार दांव पर हारा अब चोरी की बारी है।
गहने-कपड़े को क्यों रोऊं पेट की रोटी भारी है।
कौड़ी ओढ़ना कौड़ी बिछौना कौड़ी सौत हमारी है।


ज्ञानी– (गुलाबी से) आज भगवान ने बचा लिया नहीं गहने भी जाते और जान की भी कुशल न थी।

गुलाबी– यह जरूर कोई देवता है, नहीं तो दूसरों के पीछे कौन अपनी जान जोखिम में डालता?

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