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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


चेतन– नित्य ही देखता हूं। हां कोई दूसरा देखना चाहे तो कठिनाई होगी। उसके लिए किराये पर एक मकान लिया गया है, तीन लौंडियां सेवा-टहल के लिए हैं, ठाकुर साहब प्रात:काल जाता है और घड़ी-भर में वहां से लौट आता है। संध्या समय फिर जाता है और नौ-दस बजे तक रहता है। मैं इसका प्रमाण देता हूं। मैंने सबलसिंह को समझाया, पर वह इस समय किसी की नहीं सुनता। मैं अपनी आंखों यह अत्याचार नहीं देख सकता। मैं संन्यासी हूं। मेरा धर्म है कि ऐसे अत्याचारियों का, ऐसे पाखंडियों का संहार करूं। मैं पृथ्वी को ऐसे रंगे हुए सियारों से मुक्त कर देना चाहता हूं। उसके पास धन का बल है तो हुआ करे मेरे पास न्याय और धर्म का बल है। इसी बल से मैं उसको परास्त करूंगा। मुझे आशा थी कि तुम लोगों से इस पापी को दंड देने में मुझे यथेष्ट सहायता मिलेगी। मैं समझता था कि देहातों में आत्मभिमान का अभी अन्त नहीं हुआ है। वहां के प्राणी इतने पतित नहीं हुए हैं कि अपने ऊपर इतना घोर, पैशाचनिक अनर्थ देखकर भी उन्हें उत्तेजना न हो, उनका रक्त न खौलने लगे। पर अब ज्ञात हो रहा है कि सबल ने तुम लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया है। उसके दयाभाव ने तुम्हारे आत्मसम्मान को कुचल डाला है। दया को आघात अत्याचार के आघात से कम प्राणघातक नहीं होता। अत्याचार के आघात से क्रोध उत्पन्न होता है, जी चाहता है मर जायें या मार डाले। पर दया की चोट सिर को नीचा कर देती है इससे मनुष्य की आत्मा और भी निर्बल हो जाती है, उसके अभिमान का अन्त हो जाता है, वह नीच, कुटिल, खुशामदी हो जाता है। मैं तुमसे फिर पूछता हूं तुममें कुछ लज्जा का भाव है या नहीं?

एक किसान– महाराज, अगर आपका, ही कहना ठीक हो तो हम क्या कर सकते है? ऐसे दयावान पुरुष की बुराई हमसे न होगी। औरत आप ही खराब हो तो कोई क्या करे?

मंगरू– बस तुमने मेरे मन की बात कही।

हरदास– वह सदा से हमारी परबरिस करते आये हैं। आज हम उनके बागी कैसे हो जायें?

दूसरा किसान– बागी भी हो जायें तो रहें कहा? हम तो उसकी मुट्ठी में हैं। जब चाहें हमें पीस डाले पुस्तैनी अदावत हो जायेगी।

मंगरू– अपनी लाज तो ढंकते नहीं बनती, दूसरों की लाज कोई क्या ढांकेगा?

हरदास– स्वामी जी, आप संन्यासी हैं, आप सब कुछ कर सकते हैं। हम गृहस्थ लोग जमींदारों से बिगाड़ करने लगें तो कहीं ठिकाना न लगे।

मंगरू– हां और क्या, आप तो अपने तपोबल से ही जो चाहें कर सकते हैं। अगर आप सराप भी दे दें तो कुकर्मी खड़े-खड़े भस्म हो जायें।

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