नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सलोनी– जा चिल्लू-भर पानी में डूब मर कायर कहीं का। हलधर तेरे सगे चाचा का बेटा है। जब तू उसका नहीं तो और किसका होगा? मुंह में कालिख नहीं लगा लेता, ऊपर से बातें बनाता। तुझे तो चूड़ियां पहन कर घर में बैठना चाहिए था। मर्द वह होते हैं, जो अपनी आन पर जान दे देते हैं। तू हिजड़ा है। अब जो फिर मुंह खोला तो लूका लगा लूंगी।
मंगरू– सुनते ही फत्तू काका, इनकी बातें। जमींदार से बैर बढ़ाना इनके समझ में दिल्लगी है। हम पुलिसवालों से चाहें न डरें, अमलों से चाहे न डरें, महाजन से बिगाड़ कर लें, पटवारी से चाहे कहा– सुनी हो जाये, जमींदार से मुंह लगना अपने लिए गढ़ा खोदना है। महाजन एक नहीं हजारों है, अमले आते-जाते रहते हैं, बहुत करेंगे सता लेंगे, लेकिन जमींदार से तो हमारा जन्म-मरन का व्योहार है। उसके हाथ में तो हमारी रोटियां है। उससे ऐंठ कर कहां जायेंगे? न काकी, तुम चाहे गालियां दो, चाहे ताने मारो, पर सबलसिंह से हम लड़ाई नहीं ठान सकते।
चेतनदास– (मन में) मनोनीत आशा न पूरी हुई। हलधर के कुटुम्बियों में ऐसा कोई न निकला जो आवेग में अपमान का बदला लेने को तैयार हो जाता। सब-के-सब कायर निकले। कोई वीर आत्मा निकल आती जो मेरे रास्ते से इस बाधा को हटा देती, फिर ज्ञानी अपनी हो जाती है। यह दोनों उस काम के तो नहीं हैं, पर हिम्मती मालूम होते हैं। बुढ़िया दीन बनी हुई है, पर है पोढ़ी, नहीं तो इतने घमंड से बातें न करती। मियां गांठ का पूरा तो नहीं पर दिलेर जान पड़ता है। उत्तेजना में पड़ कर अपना सर्वस्व खो सकता है। अगर दोनों में कुछ धन मिल जाये तो सब इन्सपेक्टर को मिलाकर, कुछ माया-जाल से कुछ लोभ से काबू में कर लूं। कोई मुकदमा खड़ा हो जाये। कुछ न होगा भांड़ा तो फूट जायेगा। ज्ञानी उन्हें अब की भांति देवता तो न समझती रहेगी। (प्रकट) इस पापी को दंड देने का मैंने प्रण कर लिया है। ऐसे कायर व्यक्ति भी होते हैं यह मुझे ज्ञात न था। हरिच्छा। अब कोई दूसरी ही युक्ति काम में लानी चाहिए।
सलोनी– महाराज, मैं दीन-दुखिया हूं, कुछ कहना छोटा मुंह बड़ी बात है, पर मैं आपकी मदद के लिए हर तरह हाजिर हूं। मेरी जान भी काम आये तो दे सकती हूं।
फत्तू– स्वामीजी, मुझसे भी जो हो सकेगा करने को तैयार हूं। हाथों में तो अब मकदूर नहीं रहा, पर और सब तरह हाजिर हूं।
चेतन– मुझे इस पापी का संहार करने के लिए किसी की मदद की आवश्यकता न होती। मैं अपने योग और तप और बल से एक क्षण में उसे रसातल को भेज सकता हूं, पर शास्त्रों में ऐसे कामों के लिए योगबल का व्यवहार करना वर्जित है। इसी से विवश हूं। तुम धन से मेरी कुछ सहायता कर सकते हो।
सलोनी– (फत्तू की ओर सशंक दृष्टि से ताकत हुए) महाराज थोड़े से रुपये धाम करने को रख छोड़े थे। वह आपको भेंट कर दूंगी। यह भी तो पुण्य ही का काम है।
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