नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
कंचन– (आंखों में आंसू भर कर) राजेश्वरी, मैं घोर धर्म-संकट में हूं। न जाने मेरा क्या अंत होगा। मुझे इस प्रेम पर अपने प्राण बलिदान करने पड़ेंगे।
राजेश्वरी– (मन में) भगवान मैं कैसी अभागिनी हूं। ऐसे निश्छल, सरल पुरुष की हत्या मेरे हाथों हो रही है। मैं आपकी हूं और आपकी रहूंगी। संसार की आँखों में चाहे मैं जो कुछ हूं, दूसरों के साथ मेरा बाहरी व्यवहार चाहे जैसा हो, पर मेरा हृदय आपका है। मेरे प्राण आप पर न्यौछावर है। (आंचल से कंचन के आंसू पोंछ कर) अब प्रसन्न हो जाइए। यह प्रेम-रत्न आपकी भेंट है।
कंचन– राजेश्वरी, उस प्रेम को भोगना मेरे भाग्य में नहीं है। मुझ जैसा भाग्यहीन पुरुष और कौन होगा जो ऐसे दुर्लभ रत्न की ओर हाथ नहीं बढ़ा सकता। मेरी दशा उस पुरुष की-सी है जो क्षुधा से व्याकुल होकर उन पदार्थों की ओर लपके जो किसी देवता की अर्चना के लिए रखे हुए हों। मैं वहीं अमानुषी कर्म कर रहा हूं। मैं पहले यह जानता कि प्रेम-रत्न कहां मिलेगा तो तुम अप्सरा भी होती तो आकाश से उतार लाता। दूसरों की आंख पड़ने के पहले तुम मेरी हो जाती, फिर कोई तुम्हारी ओर आंख उठा कर भी न देख सकता। पर तुम मुझे उस वक़्त मिली जब तुम्हारी और प्रेम की दृष्टि से देखना भी मेरे लिए अधर्म हो गया। राजेश्वरी, मैं महापापी, अधर्मी जीव हूं। मुझे यहां इस एकांत में बैठने का, तुमसे ऐसी बातें करने का अधिकार नहीं है। पर प्रेमाघात ने मुझे संज्ञाहीन कर दिया है। इसका परिणाम कितना भयंकर होगा ईश्वर ही जाने। अब यहां मेरा बैठना उचित नहीं है। मुझे जाने दो। (उठ खड़ा होता है।)
राजेश्वरी– (हाथ पकड़ कर) न जाने पाइएगा। जब इस धर्म का पचड़ा छेड़ा है तो उसका निपटारा किये जाइए। मैं तो समझती थी जैसे जगन्नाथ पुरी में पहुंच कर छूआछूत का विचार नहीं रहता उसी भांति प्रेम की दीक्षा पाने के बाद धर्म-अधर्म का विचार नहीं रहता। प्रेम आदमी को पागल कर देता है। पागल आदमी के काम और बात का, विचार और व्यवहार का कोई ठिकाना नहीं।
कंचन– इस विचार से चित्त को संतोष नहीं होता। मुझे अब और परीक्षा में मत डालो।
राजेश्वरी– अच्छा बतलाते जाइए कब आइएगा?
कंचन– कुछ नहीं जानता क्या होगा (रोते हुए) मेरे अपराध क्षमा करना।
[जीने से उतरता है। द्वार पर सबलसिंह आते दिखायी देते हैं। कंचन एक अंधेरे बरामदे में छिप जाता है।]
सबल– (ऊपर जाकर) अरे! अभी तुम सोयीं नहीं?
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