नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
राजेश्वरी– जिन आंखों में प्रेम बसता है वहां नींद कहां?
सबल– यह उन्निद्रा प्रेम में नहीं होती। कपट-प्रेम में होती है।
राजेश्वरी– (संशक होकर) मुझे तो इसका कभी अनुभव नहीं हुआ आपने इस समय आकर बड़ी कृपा की।
सबल– (क्रोध से) अभी यहां कौन बैठा हुआ था?
राजेश्वरी– आपकी याद।
सबल– मुझे भ्रम था कि याद स्नेह नहीं हुआ करती है। आज यह नयी बात मालूम हुई। मैं तुमसे विनय करता हूं, बतला दो, अभी कौन यहां से उठ कर गया है?
राजेश्वरी– आपने देखा है तो क्यों पूछते हैं?
सबल– शायद मुझे भ्रम हुआ हो।
राजेश्वरी– ठाकुर कंचनसिंह थे।
सबल– तो मेरा गुमान ठीक निकला। वह क्या करने आया था?
राजेश्वरी– (मन में) मालूम होता है मेरा मनोरथ जल्द पूरा होगा जितनी मुझे आशा थी। (प्रकट) यह प्रश्न आप व्यर्थ करते हैं। इतनी रात गये जब कोई पुरुष किसी अन्य स्त्री के पास जाता है। तो उसका एक ही आशय हो सकता है।
सबल– उसे तुमने आने क्यों दिया?
राजेश्वरी– उन्होंने आकर द्वार खटखटाया, कहारिन जाकर खोल आयी। मैंने तो उन्हें यहां आने पर देखा।
सबल– कहारिन उससे मिली हुई है?
राजेश्वरी– यह उससे पूछिए।
सबल– जब तुमने उसे बैठे देखा तो दुत्कार क्यों न दिया?
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