लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

269 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


राजेश्वरी– जिन आंखों में प्रेम बसता है वहां नींद कहां?

सबल– यह उन्निद्रा प्रेम में नहीं होती। कपट-प्रेम में होती है।

राजेश्वरी– (संशक होकर) मुझे तो इसका कभी अनुभव नहीं हुआ आपने इस समय आकर बड़ी कृपा की।

सबल– (क्रोध से) अभी यहां कौन बैठा हुआ था?

राजेश्वरी– आपकी याद।

सबल– मुझे भ्रम था कि याद स्नेह नहीं हुआ करती है। आज यह नयी बात मालूम हुई। मैं तुमसे विनय करता हूं, बतला दो, अभी कौन यहां से उठ कर गया है?

राजेश्वरी– आपने देखा है तो क्यों पूछते हैं?

सबल– शायद मुझे भ्रम हुआ हो।

राजेश्वरी– ठाकुर कंचनसिंह थे।

सबल– तो मेरा गुमान ठीक निकला। वह क्या करने आया था?

राजेश्वरी– (मन में) मालूम होता है मेरा मनोरथ जल्द पूरा होगा जितनी मुझे आशा थी। (प्रकट) यह प्रश्न आप व्यर्थ करते हैं। इतनी रात गये जब कोई पुरुष किसी अन्य स्त्री के पास जाता है। तो उसका एक ही आशय हो सकता है।

सबल– उसे तुमने आने क्यों दिया?

राजेश्वरी– उन्होंने आकर द्वार खटखटाया, कहारिन जाकर खोल आयी। मैंने तो उन्हें यहां आने पर देखा।

सबल– कहारिन उससे मिली हुई है?

राजेश्वरी– यह उससे पूछिए।

सबल– जब तुमने उसे बैठे देखा तो दुत्कार क्यों न दिया?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book