लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

269 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


कंचन– (मन में) मन, अब क्या कहते हो? क्षत्रिय धर्म का पालन करके भाई से लड़ोगे, उसके प्राणों पर आघात करोगे या क्षत्रिय धर्म को भंग करके आत्महत्या करोगे? जी तो मरने को नहीं चाहता। अभी तक भक्ति और धर्म के जंजाल में पड़ा रहा, जीवन का कुछ सुख नहीं देखा। अब जब उसकी आशा हुई तो यह कठिन समस्या सामने आ खड़ी हुई। हो क्षत्रियधर्म के विरुद्ध, पर भाई से मैं किसी भांति विग्रह नहीं कर सकता। उन्होंने सदैव मुझसे पुत्रवत प्रेम किया है। याद नहीं आता कि कोई अमृदु शब्द उनके मुंह से सुना हो। वह योग्य हैं, विद्धान कुशल है। मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। अवसर न मिलने की बात नहीं है। भैया का शत्रु मैं हो ही नहीं सकता। क्षत्रियों के ऐसे धर्म सिद्धान्त न होते तो जरा-जरा-सी बात पर खून की नदियां क्योंकर बहतीं और भारत क्यों हाथ से जाता? नहीं, कदापि नहीं, मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। साधुगण झूठ नहीं बोलते, पर यह महात्मा जी उन पर भी मिथ्या दोषारोपण कर गये। मुझे विश्वास नहीं आता है कि वह मुझ पर इतने निर्दय हो जायेंगे। उनके दया और शील का पारावार नहीं। वह मेरी प्राणहत्या का संकेत नहीं दे सकते। एक नहीं हजार राजेश्वरी हों, पर भैया मेरे शत्रु नहीं हो सकते। यह सब मिथ्या है। मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। हाय, अभी एक क्षण में यह घटना सारे नगर में फैल जायेगी। समझेंगे, पांव फिसल गया होगा। राजेश्वरी क्या समझेगी? उसे मुझसे प्रेम है, अवश्य शोक करेगी, रोयेगी और अब से कहीं ज्यादा प्रेम करने लगेगी। और भैया? हाय यही तो मुसीबत है। अब मैं उन्हें मुंह नहीं दिखा सकता। मैं उनका अपराधी हूं। मैंने धर्म हत्या की है। अगर वह मुझे जीता चुनवा दें तो भी मुझे आह भरने का अधिकार नहीं है। मेरे लिए अब यही एक मार्ग रह गया है। मेरे बलिदान से ही अब शान्ति होगी। पर भैया पर मेरे हाथ न उठेंगे। पानी गहरा है। भगवान, मैंने पाप किये हैं, तुम्हें मुंह दिखाने योग्य नहीं हूं। अपनी अपार दया की छांह में मुझे भी शरण देना। राजेश्वरी, अब तुझे कैसे देखूंगा।

[पीलपाये पर खड़ा होकर अथाह जल में कुछ पड़ता है। हलधर का तलवार और पिस्तौल लिये आना।]

हलधर– बड़े मौके से आया। मैंने समझा था देर हो गयी। पाखंडी, कुकर्मी कहीं का। रोज गंगा नहाने आता है, पूजा करता है, तिलक लगाता है और कर्म इतने नीच। ऐसे मौके से मिले हो कि एक ही वार में काम तमाम कर दूंगा। और परायी स्त्रियों पर निगाह डालो! (पीलपाये की आड़ में छिपकर सुनता है।) पापी भगवान से दया याचना कर रहा है। यह नहीं जानता है कि एक क्षण में नर्क के द्वार पर खड़ा होगा। ‘राजेश्ववरी, अब तुम्हें कैसे देखूंगा?’ अभी प्रेत हुए जाते हो फिर उसे जी भरकर देखना। (पिस्तौल किनारे की ओर फेंक कर पानी में कूद पड़ता है और कंचनसिंह को गोद में लिये एक क्षण में बाहर आता है। (मन में) अभी पानी पेट में बहुत कम गया है। इसे कैसे होश में लाऊं? है तो यह अपना बैरी, पर जब आप ही मरने पर उतारू है तो इस पर क्या हाथ उठाऊं। मुझे तो इस पर दया आती है।

[कंचनसिंह को लेटाकर उसकी पीछ में घुटने लगाकर उसकी बांहों को हिलाता है। चेतनदास का प्रवेश।]

चेतनदास– (आश्चर्य से) यह क्या दुर्घटना हो गयी? क्या तूने इनको पानी में डूबा दिया?

हलधर– नहीं महाराज, यह तो आप नदी में कूद पड़े। मैं तो बाहर निकाल लाया हूं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book