नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
कंचन– महाराज, मुझे अपने भाई से ऐसी आशंका नहीं है।
चेतन– यह तुम्हारा भ्रम है। प्रेम-ईर्ष्या में मनुष्य अस्थिरचित्त, उन्मत हो जाता है।
कंचन– यदि ऐसा ही हो तो मैं क्या कर सकता हूं? मेरी आत्मा तो स्वयं अपने पाप के बोझ में दबी हुई है।
चेतन– यह क्षत्रियों की बातें नहीं हैं। भूमि, धन और नारी के लिए संग्राम करना क्षत्रियों का धर्म है। इन वस्तुओं पर उसी का वास्तविक अधिकार है जो अपने बाहुबल से उन्हें छीन सके। इस संग्राम में दया और धर्म, विवेक और विचार, मान और प्रतिष्ठा सभी कायरता के पर्याय हैं। यही उपदेश कृष्ण भगवान ने अर्जुन को दिया था, और वही उपदेश मैं तुम्हें दे रहा हूं। तुम मेरे भक्त हो इसलिए यह चेतावनी देना मेरा कर्तव्य था। योद्धाओं की भांति क्षेत्र में निकलो और अपने शत्रु के मस्तक को पैरों से कुचल डालो, उसको गेंद बनाकर खेलो अथवा अपनी तलवार की नोक पर उछालो। यही वीरों का धर्म है। जो प्राणी क्षत्रिय वंश में जन्म लेकर संग्राम से मुंह मोड़ता है वह केवल का पुरुष ही नहीं, पापी है, विधर्मी है, दुरात्मा है, कर्मक्षेत्र में कोई किसी का पुत्र नहीं, भाई नहीं, सब एक दूसरे के शत्रु हैं। यह समस्त संसार कुछ नहीं, केवल एक वृहत्, विराट शत्रुता है। दर्शनकारों और धर्माचायों ने संसार को प्रेममय कहा है। उनके कथानुसार ईश्वर स्वयं प्रेम है। यह भ्रांतिका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जिसने संसार को वेष्टित कर रखा है। भूल जाओ कि तुम किसी के भाई हो। जो तुम्हारे ऊपर आघात करे उसका प्रतिघात करो, जो तुम्हारी ओर वक्र नेत्रों से ताके उसकी आंखें निकाल लो। राजेश्वरी तुम्हारी है, प्रेम के नाते उस पर तुम्हारा ही अधिकार है। अगर तुम अपने कर्त्तव्य-पथ से हटकर उसे उस पुरुष के हाथों में छोड़ दोगे जिससे उसे पहले चाहे प्रेम रहा हो पर अब वह उससे घृणा करती है, तो तुम न्याय, नीति और धर्म के घातक सिद्ध होगे और जन्म-जन्मान्तरों तक इसका दंड भोगते रहोगे।
[चेतनदास का प्रस्थान]
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