नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
दूसरा– यह तो खासा टैंया-सा बैठा हुआ है। लाओ मैं एक हाथ दिखाऊं।
हलधर– खबरदार, हाथ न उठाना।
पहला– क्या कुछ हत्थे चढ़ गया क्या?
हलधर– हां असर्फियों की थैली है। मुंह धो रखना।
तीसरा– यह बहुत बड़ा ब्याज लेता है। सब रुपये इसकी तोंद में से निकाल लो।
हलधर– जबान संभालकर बात करो।
पहला– अच्छा इसे ले चलो, दो चार दिन बर्तन मंजवायेगे। आराम करते-करते मोटा हो गया है।
दूसरा– तुमने इसे क्यों छोड़ दिया?
हलधर– इसने वचन दिया कि अब सूद न लूंगा।
पहला– क्यों बच्चा, गुरू को सीधा समझकर झांसा दे दिया।
हलधर-बक-बक मत करो। इन्हें नाव पर बैठाकर डेरे पर ले चलो। यह बेचारे सूद ब्याज जो कुछ लेते हैं अपने भाई के हुकूम से लेते हैं। आज उसी की खबर लेने का विचार है।
[सब कंचन को सहारा देकर नाव पर बैठा देते हैं और गाते हैं और गाते हुए नाव चलाते हैं।]
मानुष तन है दुर्लभ जग में इसका फल पाना चाहिए!
दुर्जन संग नरक का मारग उससे दूर जाना चाहिए!
संत संगत में सदा बैठ के हरि के गुण गाना चाहिए!
धरम कमाई करके अपने हाथों की खाना चाहिए!
परनारी को अपनी माता के समान जाना चाहिए!
झूठ-कपट की बात सदा कहने में शरमाना चाहिए!
कथा-पुरान संत संगत में मन को बहलाना चाहिए!
नारायण का नाम सदा मन के अन्दर लाना चाहिए!
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