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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

नौवां दृश्य

[स्थान– गुलाबी का मकान, समय– संध्या, चिराग जल चुके हैं, गुलाबी सन्दूक से रुपये निकाल रही है।]

गुलाबी– भाग जाग जायेंगे। स्वामी के प्रताप से यह सब रुपये दूने हो जायेंगे। पूरे ३०० रु हैं। लौटूंगी तो हाथ में ६०० रु की थैली होगी। इतने रुपये तो बरसों में भी न बटोर पाती। साधु महात्माओं में बड़ी शक्ति होती है। स्वामी जी ने यह यंत्र दिया है। भृगु के गले में बांध दूं। फिर देखूं यह चुड़ैल उसे कैसे अपने बस में किये रहती है। उन्होंने तो कहा है कि वह उसकी बात भी न पूछेगा। यही तो मैं चाहती हूं। उसका मान-मर्दन हो जाये, घमंड टूट जाये। (भृगु को बुलाती है।) क्यों बेटा, आजकल तुम्हारी तबीयत कैसी रहती है? दुबले होते जाते हो?

भृगु– क्या करूं? सारे दिन बही खोले बैठे-बैठे थक जाता हूं। ठाकुर कंचनसिंह एक बीड़े पान को भी नहीं पूछते। न कहीं घूमने जाता हूं, न कोई वस्तु भोजन को मिलती है। जो लोग लिखने-पढ़ने का काम करते हैं उन्हें दूध, मक्खन, मलाई, मेवा-मिसरी इच्छानुकूल मिलनी चाहिए। रोटी, दाल, चावल, तो मजूरों का भोजन है। सांझ-सवेरे वायु सेवन करना चाहिए। कभी-कभी थियेटर देखकर मन बहलाना चाहिए। पर यहां इनमें से कोई भी सुख नहीं। यही होगा कि सूखते-सूखते एक दिन जान से चला जाऊंगा।

गुलाबी– ऐ नौज बेटा, कैसी बात मुंह से निकालते हो? मेरे जान में तो कुछ फेरफार है। इस चुड़ैल ने तुम्हें कुछ कर करा दिया है। यह पक्की टोनिहारी है। पूरब की न है। वहां की सब लड़कियों टोनिहारी होती हैं।

भृगु– कौन जाने यही बात हो। कंचनसिंह के कमरे में अकेले बैठता हूं तो ऐसा डर लगता है जैसे कोई बैठा हो। रात को आने लगता हूं तो फाटक पर मौलसरी के पेड़ के नीचे किसी को खड़ा देखता हूं। कलेजा थर-थर कांपने लगता है। किसी तरह चित्त को ढाढ़स देता हुआ चला आता हूं। लोग कहते हैं पहले वहां किसी की कबर थी।

गुलाबी– मैं स्वामी जी के पास से यह जंतर लायी हूं। इसे गले में बांध लो। शंका मिट जायेगी। और कल से अपने लिए पाव-भर दूध भी लाया करो। मैंने खूबा अहीर से कहा है। उसके लड़के को पढ़ा दिया करो, वह तुम्हें दूध दे देगा।

भृगु– जंतर लाओ मैं बांध लूं, पर खूबा के लड़के को मैं न पढ़ा सकूंगा। लिखने-पढ़ने का काम करते-करते सारे दिन यों ही थक जाता हूं। मैं जब तक कंचनसिंह के यहां रहूंगा मेरी तबीयत अच्छी न होगी। मुझे दूकान खुलवा दो।

गुलाबी– बेटा, दूकान के लिए तो पूंजी चाहिए। इस घड़ी तो यह तावीज बांध लो। फिर मैं और कोई जतन करूंगी। देखो देवी जी ने खाना बना लिया? आज मालकिन ने रात को वहीं रहने को कहा है।

[भृगु जाता है और चम्पा से पूछकर आता है, गुलाबी चौके में जाती है।]

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