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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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इस पर बूढ़े हरिदास ने उपदेश दिया– यारो, स्वार्थ की बात है, नहीं तो सच यह है कि यह मनुष्य नहीं, देवता है। भला और नहीं तो साल भर में कमीशन के १० हजार तो होते होंगे! इतने रुपयों को ठीकरे की तरह तुच्छ समझना क्या कोई सहज बात है? एक हम हैं कि कौड़ियों के पीछे ईमान बेचते फिरते हैं। जो सज्जन पुरुष हमसे एक पाई का रवादार न हो, सब प्रकार के कष्ट उठाकर भी जिसकी नीयत डावाँडोल न हो, उसके साथ ऐसा नीच और कुटिल बर्ताव करना पड़ता है, इसे अपने अभाग्य के सिवा और क्या समझें?

शहबाज खाँ ने फरमाया– हाँ, इसमें तो कोई शक नहीं है कि यह शख्म नेकी का फरिश्ता है।

सेठ चुन्नीलाल ने गम्भीरता से कहा– खाँ साहब! बात तो वही है, जो तुम कहते हो। लेकिन किया क्या जाए? नेकनीयती से तो काम नहीं चलता,यह दुनिया तो छल–कपट की है।

मिस्टर गोपालदास बी. ए. पास थे। वे गर्व के साथ बोले– इन्हें जब इस तरह करना था, तो नौकरी करने की क्या जरूरत थी? यह कौन नहीं जानता कि नीयत को साफ रखना अच्छी बात है। मगर यह भी तो देखना चाहिए कि इसका दूसरों पर क्या असर पड़ता है। हमको तो ऐसा आदमी चाहिए, जो खुद खाए और हमें भी खिलावे। खुद हलुआ खाए, हमें रुखी रोटियाँ ही खिलावे। वह अगर एक रुपया कमीशन लेगा, तो उसकी जगह पाँच का फायदा करा देगा। इन महाशय के यहाँ क्या है? इसलिए आप जो चाहें कहें, मेरी तो कभी इनसे निभ नहीं सकती।

शहबाज खाँ बोले– हाँ, नेक और पाक-साफ रहना जरूर अच्छी चीज है, मगर ऐसी नेकी ही से क्या, जो दूसरों की जान ही ले ले।

बूढ़े हरिदास की बातों की जिन लोगों ने पुष्टि की थी, वे सब गोपालदास की हाँ में हाँ मिलाने लगे। निर्बल आत्माओं में सचाई का प्रकाश जुगनू की चमक है।

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