कहानी संग्रह >> सप्त सरोज (कहानी संग्रह) सप्त सरोज (कहानी संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध कहानियाँ
सरदार साहब के एक पुत्री थी। उसका विवाह मेरठ के एक वकील के लड़के से ठहरा था। लड़का होनहार था। जाति-कुल ऊँचा था। सरदार साहब ने कई महीनों की दौड़-धूप में इस विवाह को तै किया था। और सब बातें तै हो चुकी थीं। केवल दहेज का निर्णय नहीं हुआ था। आज वकील साहब का एक पत्र आया। उसने इस बात का भी निश्चय कर दिया, मगर विश्वास, आशा वचन के बिलकुल प्रतिकूल। पहले वकील साहब ने एक जिले के इंजीनियर के साथ किसी प्रकार का ठहराव व्यर्थ समझा। बड़ी सस्ती उदारता प्रकट की। इस लज्जित और घृणित व्यवहार पर खूब आँसू बहाए। मगर अब ज्यादा पूछ-ताछ करने पर सरदार साहब के धन-वैभव का भेद खुल गया, तब दहेज का ठहराना आवश्यक हो गया। सरदार साहब ने आशंकित हाथों से पत्र खोला। पाँच हजार रुपये से कम पर विवाह नहीं हो सकता। वकील साहब को बहुत खेद और लज्जा थी कि वे इस विषय में स्पष्ट होने पर मजबूर किए गए। मगर वे अपने खानदान के कई बूढ़े, खुर्राट, विचारहीन, स्वार्थान्ध महात्माओं के हाथों बहुत तंग थे। उनका कोई वश न था। इंजीनियर साहब ने एक लम्बी साँस खींची। सारी आशाएँ मिट्टी में मिल गईं। क्या सोचते थे, क्या हो गया! विकल होकर कमरे में टहलने लगे।
उन्होंने जरा देर पीछे पत्र उठा लिया और अन्दर चले गए। विचारा कि यह पत्र रामा को सुनावें, मगर फिर ख्याल आया कि वहाँ सहानुभूति की कोई आशा नहीं। क्यों अपनी निर्बलता दिखाऊँ?
क्यों मूर्ख बनूँ? वह बिना तानों के बात न करेगी। यह सोचकर वे आँगन से लौट गए।
सरदार साहब स्वभाव के बड़े दयालु थे। और कोमल हृदय आपत्तियों में स्थिर नहीं रह सकता। वे दुःख और ग्लानि से भरे हुए सोच रहे थे कि मैंने ऐसे कौन से बुरे काम किए हैं, जिनका मुझे यह फल मिल रहा है। बरसों की दौड़-धूप के बाद जो कार्य सिद्ध हुआ था, वह क्षण मात्र में नष्ट हो गया। अब वह मेरी सामर्थ्य से बाहर है। मैं उसे नहीं सँभाल सकता। चारों ओर अंधकार है। कहीं आशा का प्रकाश नहीं। कोई मेरा सहायक नहीं उनके नेत्र सजल हो गए।
सामने मेज पर ठेकेदारों के बिल रखे हुए थे। वे कई सप्ताह से यों ही पड़े थे। सरदार साहब ने उन्हें खोलकर भी न देखा था। आज इस आत्मिक ग्लानि और नैराश्य की अवस्था में उन्होंने इन बिलों को सतृष्ण आँखों से देखा। जरा से इशारे पर सारी कठिनाइयाँ दूर हो सकती हैं। चपरासी और क्लर्क केवल मेरी सम्मति के सहारे सब कुछ कर लेंगे। मुझे जबान हिलाने की भी जरूरत नहीं। न मुझे लज्जित ही होना पड़ेगा। इन विचारों का इतना प्रबल्य हुआ कि वे वास्तव में बिलों को उठाकर गौर से देखने और हिसाब लगाने लगे कि उनमें कितनी निकासी हो सकती है।
मगर शीघ्र ही आत्मा ने उन्हें जगा दिया– आह! मैं किस भ्रम में पड़ा हुआ हूँ? क्या उस आत्मिक पवित्रता की, जो मेरी जन्म भर की कमाई है, केवल थोड़े से धन पर अर्पण कर दूँ? जो मैं अपने सहकारियों के सामने गर्व से सिर उठाए चलता था, जिससे मोटर-कार-वाले भ्रातृगण आँखें नहीं मिला सकते थे, वही मैं आज अपने उस सारे गौरव और मान को, अपनी सम्पूर्ण आत्मिक सम्पत्ति को दस-पाँच रुपयों पर त्याग दूँ? ऐसा कदापि नहीं हो सकता।
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