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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध कहानियाँ


इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया। संध्या का समय था। बूढ़े मुंशीजी बैठे राम-नाम की माला जप रहे थे। इसी समय उनके द्वार पर एक सजा हुआ रथ आकर रुका। हरे और गुलाबी परदे, पछहिएँ बैलों की जोड़ी, उनकी गर्दनों में नीले धागे, सींगे पीतल से जड़ी हुई। कई नौकर लाठियाँ कंधों पर रखे साथ थे। मुंशीजी आगवानी को दौड़े। देखा तो पण्डित अलोपीदीन हैं। झुककर दंडवत की ओर लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे– हमारा भाग्य उदय हुआ, जो आपके चरण इस द्वार पर आये। आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन-सा मुँह दिखावें, मुँह में तो कालिख लगी हुई है। किन्तु क्या करें, लड़का अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्यों मुँह छिपाना पड़ता? ईश्वर निस्संतान चाहे रक्खे, पर ऐसी संतान न दे।

अलोपीदीन ने कहा– नहीं भाई साहब, ऐसा न कहिए।

मुंशीजी ने चकित होकर कहा– ऐसी सन्तान को और क्या कहूँ?

अलोपीदीन ने वात्सल्यपूर्ण स्वर में कहा– कुलतिलक और पुरुषों की कीर्ति उज्जवल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं, जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें?

पण्डित अलोपीदिन ने वंशीधर से कहा– दारोगाजी, इसे खुशामद न समझिएगा, खुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ठ उठाने की जरूरत न थी। उस रात को आपने अपने अधिकार बल से मुझे अपनी हिरासत में ले लिया था, किन्तु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में आया हूँ। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पड़ा; किन्तु मुझे परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड़ दिया। मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूँ।

वंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर सत्कार किया, किन्तु स्वाभिमान सहित। समझ गए कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने आये हैं। क्षमा-प्रार्थना की चेष्टा नहीं की, वरन् उन्हें अपने पिता की यह ठकुरसुहाती की बात असह्य-सी प्रतीत हुई। पर पण्डितजी की बातें सुनी तो मन की मैल मिट गई। पण्डितजी की ओर मुड़ती हुई दृष्टि से देखा। सद्भाव झलक रहा था। गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया। शर्माते हुए बोले– यह आपकी उदारता है, जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिए। मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूँ। जो आज्ञा होगी, वह मेरे सिर माथे पर।

अलोपीदीन ने विनीत भाव से कहा– नदी के तट पर आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार न की थी, किन्तु आज स्वीकार करनी पड़ेगी।

वंशीधर बोले– मैं किस योग्य हूँ, किन्तु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें त्रुटि न होगी।

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