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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध कहानियाँ


अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा हुआ पत्र निकाला और उसे वंशीधर के सामने रखकर बोले– इस पद को स्वीकार कीजिए और अपने हस्ताक्षर कर दीजिए। मैं ब्राह्मण हूँ, जब तक यह सवाल पूरा न कीजिएगा, द्वार से न हटूँगा।

मुंशी वंशीधर ने उस कागज को पढ़ा, तो कृतज्ञता से आँखों में आँसू भर आए। पण्डित अलोपीदिन ने उन्हें अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियत किया था। छ: हजार वार्षिक वेतन के अतिरिक्त रोजाना खर्च अलग, सवारी के लिए घोड़े, रहने को बँगला, नौकर-चाकर मुफ्त। कम्पित स्वर से बोले– पण्डितजी मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि आपकी इस उदारता की प्रशंसा कर सकूँ। किन्तु मैं ऐसे उच्च पद के योग्य नहीं हूँ।

अलोपीदीन हँसकर बोले– मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही जरूरत है।

वंशीधर ने गम्भीर भाव से कहा– यों मैं आपका दास हूँ। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। किन्तु मुझमें न विद्या है, न बुद्धि, न वह अनुभव, जो इतनी त्रुटियों की पूर्ति कर देता है। ऐसे महान् कार्य के लिए एक बड़े मर्मज्ञ अनुभवी मनुष्य की जरूरत है।

अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले– न मुझे विद्वत्ता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की, न कार्य-कुशलता की। इन गुणों के महत्त्व का परिचय खूब पा चुका हूँ। अब सौभाग्य और सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया है। यह कलम लीजिए, अधिक सोच-विचार न कीजिए, दस्तखत कर दीजिये। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि आपको सदैव वही नदी के किनारेवाला, बेमुरौवत, उद्दण्ड, कठोर, परन्तु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे।

वंशीधर की आँखें डबडबा आईं। हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पण्डितजी की ओर भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखा और काँपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए।

अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें गले लगा लिया।

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