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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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उपदेश

प्रयाग में सुशिक्षित समाज में पण्डित देवरत्न शर्मा वास्तव में एक रत्न थे। शिक्षा भी उन्होंने उच्च श्रेणी की पाई थी और कुल के भी उच्च थे। न्यायशील गवर्नमेंट ने उन्हें एक उच्च पद पर नियुक्त करना चाहा, पर उन्होंने अपनी स्वतन्त्रता का घात करना उचित न समझा। उनके कई शुभचिंतक मित्रों ने बहुत समझाया कि इस सुअवसर को हाथ से मत जाने दो। सरकारी नौकरी बड़े भाग्य से मिलती है। बड़े-बड़े लोग इसके लिए तरसते हैं और कामना लिये ही संसार से प्रस्थान कर जाते हैं। अपने कुल की कीर्ति उज्जवल करने का इससे सुगम और मार्ग नहीं है इसे कल्पवक्ष समझो। विभव, सम्पत्ति, सम्मान और ख्याति यह सब इसके दास हैं। रह गई देश-सेवा, सो तुम्हीं देश के लिए क्यों प्राण देते हो‍‍? इस नगर में अनेक बड़े-बड़े विद्वान् और धनवान पुरुष हैं, जो सुख-चैन से बँगलों में रहते और मोटरों पर हरहराते, धूल की आँधी उड़ाते घूमते हैं। क्या वे लोग देशसेवक नहीं हैं? जब आवश्यकता होती है या कोई अवसर आता है, तो वे देशसेवा में निमग्न हो जाते हैं। अभी जब म्युनिसिपल चुनाव का झगड़ा छिड़ा, तो मेयोहाल के हाते में मोटरों का ताँता लगा हुआ था। भवन के भीतर राष्ट्रीय गीतों और व्याख्यानों की भरमार थी। पर इनमें से कौन ऐसा है, जिसने स्वार्थ को तिलाञ्जलि दे रखी हो? संसार का नियम ही है कि पहले घर में दीया जलाकर तब मस्जिद में जलाया जाता है। सच्ची बात तो यह है कि जातीयता की चर्चा कुछ कालेज के विद्यार्थियों को ही शोभा देती है। जब संसार में प्रवेश हुआ, तो कहाँ जाति और कहाँ की जातीय चर्चा। संसार की यही रीति है। फिर तुम्हीं को काम काजी बनने की क्या जरूरत? यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए, तो सरकारी पद पाकर मनुष्य अपने देशभाइयों की जैसी सच्ची सेवा कर सकता है,वैसी किसी अन्य अवस्था में कदापि् नहीं कर सकता। एक दयालु दारोगा सैकड़ों जातीय सेवकों से अच्छा है। एक न्यायशील, धर्मपरायण मजिस्ट्रेट सहस्त्रों जातीय दानवीरों से अधिक देश-सेवा कर सकता है। इसलिए हृदय में लगन चाहिए। मनुष्य चाहे जिस अवस्था में हो, देश का हित साधन कर सकता है। इसलिए अब अधिक आगा-पीछा न करो, चटपट करो, पद को स्वीकार कर लो।

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