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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध कहानियाँ


एक बार प्रयाग में प्लेग का प्रकोप हुआ था। शहर के रईस लोग निकल भागे। ये बेचारे गरीब चूहों की भाँति पटापट मरने लगे। शर्मा जी ने भी चलने की ठानी। लेकिन ‘‘सोशल सर्विस लीग” के वे मन्त्री ठहरे। ऐसे अवसर पर निकल भागने में बदनामी का भय था। बहाना ढूँढ़ा। ‘‘लीग” के प्रायः सभी लोग कालेज में पढ़ते थे। उन्हें बुलाकर इन शब्दों में अपना अभिप्राय प्रकट किया-मित्रवृन्द, आप अपनी जाति के दीपक हैं। आप ही इस मरणोन्मुख जाति के आशास्थल हैं। आज हम पर विपत्ति की घटाएँ छाई हैं। ऐसी अवस्था में हमारी आँखें आपकी ओर न उठें तो किसकी ओर उठेंगी? मित्र इस जीवन में देश-सेवा के अवसर बड़े सौभाग्य से मिला करते हैं। कौन जानता है कि परमात्मा ने तुम्हारी परीक्षा के लिए ही यह वज्र-प्रहार किया हो। जनता को दिखा दो कि तुम वीरों का हृदय रखते हो, जो कितने ही संकट पड़ने पर भी विचलित नहीं होता। हाँ, दिखा दो कि वह वीर-प्रसविनी पवित्र भूमि, जिसने हरिश्चन्द्र और भरत को उत्पन्न किया, आज भी शून्यगर्भा नहीं है। जिस जाति के युवकों में अपने पीड़ित भाइयों के प्रति ऐसी करुणा, यह अटल प्रेम है, वह संसार में सदैव यश-कीर्ति की भागी रहेगी। आइए, हम कमर बाँधकर कर्मक्षेत्र में उतर पड़े। इसमें सन्देह नहीं कि काम कठिन है, बीहड़ है। आपको अपने आमोद-प्रमोद अपने हाकी टेनिस, अपने मिल और मिल्टन को छोड़ना पड़ेगा। तुम जरा हिचकोगे, हटोगे और मुँह फेर लोगे, परन्तु भाइयो! जातीय सेवा का स्वर्गीय आनन्द सहज में ही नहीं मिल सकता। हमारा पुरुषत्व हमारा मनोबल हमारा शरीर, यदि जाति के काम न आवे, तो वह व्यर्थ है। मेरी प्रबल आकाँक्षा थी कि इस शुभ कार्य में मैं तुम्हारा हाथ बँटा सकता, पर आज ही देहातों में भी बीमारी फैलने का समाचार मिला है। अतएव मैं यहाँ का काम आपके सुयोग्य, सुदृढ़ हाथों में सौंपकर देहात जाता हूँ कि यथासाध्य देहाती भाइयों की सेवा करूँ। मुझे विश्वास है, आप सहर्ष मातृभूमि के प्रति अपना कर्त्तव्य पालन करेंगे।

इस तरह गला छुड़ाकर शर्माजी सन्ध्या समय स्टेशन पहुँचे। पर मन कुछ मलिन था। अपनी इस कायरता और निर्बलता पर मन ही मन लज्जित थे।

संयोगवश स्टेशन पर उनके एक वकील मित्र मिल गए। यह वही वकील थे, जिनके आश्रय में बाबूलाल का निर्वाह होता था। यह भी भागे हुए जा रहे थे। बोले– कहिए शर्माजी, किधर चले? क्या भाग खड़े हुए?

शर्माजी पर घड़ों पानी पड़ गया, पर सँभलकर बोले– भागूँगा क्यों?

वकील– सारा शहर क्यों भागा जा रहा है?

शर्माजी– मैं ऐसा कायर नहीं हूँ।

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